व्यक्ति की चाह होती है कि उसका भी घर हो। ताकि वह अपना जीवन आराम व सुखमय व्यतीत कर सके। वास्तु शास्त्र के अनुसार यथार्थवादी दृष्टिकोण यह है कि भवन में यदि आपको अच्छी सुकून की नींद, अच्छा सेहतमंद भोजन और भरपूर प्यार व अपनत्व नहीं मिल रहा है तो भवन में वास्तु दोष है। इसलिए भवन का निर्माण करवाते समय वास्तु के नियमों का पालन करना चाहिए।
वास्तु शास्त्र के अनुसार भवन का मुख्य द्वार चार में से किसी एक दिशा में हो। परंतु भवन का मुख्य द्वार सिर्फ पूर्व या उत्तर में होतो श्रेष्ट होगा।
पूर्व दिशा इसलिए क्योंकि पूर्व से सूर्योदय और पश्चिम में अस्त होता है। पूर्व दिशा में निर्मित मुख्य द्वार तथा अन्य द्वार भी केवल पूर्वमुखी हो तो शुभ परिणाम प्राप्त होते हैं। उत्तरमुखी भवन में लगाए जाने वाले मुख्य दरवाजे को चौकोर रखना चाहिए। उत्तर की ओर खुला छत रखना चाहिए। यह सकारात्मक ऊर्जा का संचार करने में सहायता करता है।
वास्तु नियम के अनुसार - पूजाघर
घर में पूजा के कमरे का स्थान सबसे अहम होता है। इस स्थान से ही हमारे मन और मस्तिष्क को शांति मिलती है। वास्तु के अनुसार देवों के लिए उत्तर-पूर्व की दिशा श्रेष्ठ है। इस दिशा में पूजाघर स्थापित करें। यदि पूजाघर किसी ओर दिशा में हो तो पानी पीते समय मुंह ईशान कोण यानी उत्तर-पूर्व दिशा की ओर रखें। पूजाघर के ऊपर या नीचे की मंजिल पर शौचालय या रसोईघर नहीं होना चाहिए, न ही इससे सटा हुआ। सीढ़ियों के नीचे पूजा का कमरा बिलकुल नहीं बनवाना चाहिए। यह हमेशा ग्राउंड फ्लोर पर होना चाहिए, तहखाने में नहीं। पूजा का कमरा खुला और बड़ा बनवाना चाहिए।
वास्तु नियम के अनुसार - रसोईघर
भोजन की गुणवत्ता बनाए रखने और उत्तम भोजन निर्माण के लिए रसोई का स्थान घर में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। यदि हम भोजन अच्छा ग्रहण करते हैं तो हमारा दिन ऊर्जा से भरपूर और अच्छा गुजरता है। यदि रसोई कक्ष का निर्माण सही दिशा में नहीं किया गया है तो परिवार के सदस्यों को भोजन से पाचन संबंधी अनेक बीमारियां हो सकती हैं। रसोईघर के लिए सबसे उपयुक्त स्थान आग्नेय कोण यानी दक्षिण-पूर्वी दिशा है, जो कि अग्नि देव का स्थान है। दक्षिण-पूर्व दिशा के बाद दूसरी वरीयता का उपयुक्त स्थान उत्तर-पश्चिम दिशा है।
वास्तु नियम के अनुसार – शयन कक्ष
भवन में मुख्य शयन कक्ष, जिसे मास्टर बेडरूम भी कहा जाता है, भवन के दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य) या उत्तर-पश्चिम (वायव्य) की ओर होना चाहिए। यदि मकान बहुमंजिला है तो मास्टर बेडरूम ऊपरी मंजिल के दक्षिण-पश्चिम कोने में होना चाहिए। बिस्तर के सामने आईना और शयन कक्ष के दरवाजे के सामने पलंग न लगाएं। शयन कक्ष में सोते समय हमेशा सिर दीवार से सटाकर सोना चाहिए। पैर दक्षिण और पूर्व दिशा में करने नहीं सोना चाहिए। उत्तर दिशा की ओर पैर करके सोने से स्वास्थ्य लाभ तथा आर्थिक लाभ की संभावना रहती है। पश्चिम दिशा की ओर पैर करके सोने से शरीर की थकान निकलती है, नींद अच्छी आती है।
वास्तु नियम के अनुसार - अतिथि कक्ष
अतिथि देव के समान होता है। इसलिए उनका कक्ष उत्तर-पूर्व या उत्तर-पश्चिम दिशा में होना चाहिए। वास्तु में घर के उत्तर-पूर्व दिशा (ईशान कोण) में अतिथि कक्ष होना उत्तम माना गया है। अतिथि कक्ष दक्षिण-पश्चिम दिशा में नहीं बनाना चाहिए क्योंकि यह दिशा केवल घर के स्वामी के लिए है। उत्तर-पश्चिम दिशा आपके मेहमानों के ठहरने के लिए सबसे सुविधाजनक दिशा है। अतिथि को ऐसे कमरे में ठहराना चाहिए, जो अत्यंत साफ व व्यवस्थित हो। जिसे देखकर मेहमान का मन प्रसन्न हो जाए।
वास्तु नियम के अनुसार - स्नानगृह और शौचालय
भवन में या भवन के आंगन में स्नानगृह और शौचालय बनाते वक्त वास्तु का सबसे ज्यादा ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि इसके बुरे प्रभाव के कारण भवन का वातावरण बिगड़ सकता है। स्नानगृह में चंद्रमा का वास है तथा शौचालय में राहू का। अतः शौचालय और स्नानगृह एकसाथ नहीं होना चाहिए अर्थात चंद्र और राहू का एकसाथ होना चंद्रग्रहण है। जो गृह कलह का कारण बनता है।
स्नानगृह भवन के पूर्व दिशा में होना चाहिए। नहाते समय हमारा मुंह अगर पूर्व या उत्तर में है तो लाभदायक माना जाता है। शौचालय भवन के नैऋत्य (पश्चिम-दक्षिण) कोण में अथवा नैऋत्य कोण व पश्चिम दिशा के मध्य में होना उत्तम है। इसके अलावा शौचालय के लिए वायव्य कोण तथा दक्षिण दिशा के मध्य का स्थान भी उपयुक्त बताया गया है। पूर्व दिशा में उजालदान होना चाहिए। स्नानगृह में वॉश बेशिन को उत्तर या पूर्वी दीवार में लगाना चाहिए। दर्पण को उत्तर या पूर्वी दीवार में लगाना चाहिए। दर्पण दरवाजे के ठीक सामने न हो। शौचालय में सीट इस प्रकार हो कि उस पर बैठते समय आपका मुख दक्षिण या उत्तर की ओर होना चाहिए। शौचालय की नकारात्मक ऊर्जा को घर में प्रवेश करने से रोकने के लिए शौचालय का उपयोग एक्जॉस्ट फेन चलाकर करना चाहिए।
वास्तु नियम के अनुसार - अध्ययन कक्ष
वास्तु के अनुसार पूर्व, उत्तर, ईशान तथा पश्चिम के मध्य में अध्ययन कक्ष बनाया जा सकता है। अध्ययन करते समय दक्षिण तथा पश्चिम की दीवार से सटकर पूर्व तथा उत्तर की ओर मुख करके बैठना चाहिए। अध्ययन कर्ता के पीठ के पीछे द्वार अथवा खिड़की न हो। अध्ययन कक्ष का ईशान कोण खाली होना लाभप्रद होता है।