होली के रंग भरे त्यौहार से तो आप सभी वाकिफ हैं। फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला यह पर्व बहुत ही उल्लास का पर्व होता है। इसमें प्रेम व भाईचारे के रंग तो दिखाई देते ही हैं साथ ही होली का धार्मिक महत्व भी बहुत अधिक है। पंडितजी का कहना है कि होली को मनाने की परंपरा कब शुरू हुई इसके ऐतिहासिक व प्रामाणिक साक्ष्य तो नहीं मिलते लेकिन होली के मनाने के पिछे जो कारण हैं, उन से जुड़ी कथाएं हिंदू धर्म ग्रंथों में जरूर मिलती हैं। आइये आपको बताते हैं होली के त्यौहार से जुड़ी कुछ कथाओं के बारे में।
होली के पर्व की कथाएं तो अनेक हैं लेकिन जो सबसे प्रचलित कथा है वह है भक्त प्रह्लाद की। वही भक्त प्रह्लाद जो अपने पिता हरिण्यकश्यपु से बगावत कर भगवान की सत्ता में यक़ीन करता है। होता यूं है कि हरिण्यकश्यपु दैत्यराज था उसने कठोर तपस्या कर देवताओं से यह वरदान प्राप्त कर लिया कि वह न धरती पर मरेगा न आसमान, न दिन में मरेगा न ही रात में, न अस्त्र से होगी हत्या न शस्त्र से, न मरेगा बाहर न मरेगा घर में, न मार सकेगा पशु कोई उसे न मर सकेगा नर से। यह वरदान पाकर वह खुद को अमर समझने लगा और अत्याचार करने लगा, वह खुद को भगवान कहने लगा और लोगों को उसे भगवान मानने पर मजबूर करने लगा। कोई उसके खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं करता था। ऐसे में उसका स्वयं का पुत्र प्रह्लाद जो कि बालक ही था वह उसके खिलाफ हो गया। हरिण्यकश्यपु से यह बर्दाश्त नहीं हुआ उसने प्रह्लाद को अनेक यातानाएं दी लेकिन भगवान उसकी हर घड़ी मदद करते और उसका विश्वास और भी दृढ़ हो जाता। हरिण्यकश्यपु को सूझ नहीं रहा था ऐसे में उसकी बहन होलिका कहते हैं उसके पास एक चद्दरनुमा वस्त्र या कवच था जिसे ओढ़ने के बाद उसे अग्नि जला नहीं सकती थी। अब यह तय हुआ कि होलिका प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर बैठेगी व वह अग्नि में समाप्त हो जायेगा। लेकिन यहां भी भगवान ने उसका साथ दिया और जैसे ही आंच प्रह्लाद तक पंहुची बड़े जोर का तूफान आया और होलिका के कवच ने प्रह्लाद को ढक लिया व होलिका अग्नि में भस्म हो गई इस प्रकार होली का यह त्यौहार बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाया जाता है।
कहते हैं राजा पृथु के राज्यकाल में ढुंढी नाम की एक बहुत की ताकतवर व चालाक राक्षसी थी, वह इतनी निर्मम थी की बच्चों तक को खा जाती। उसने देवताओं की तपस्या कर यह वरदान भी प्राप्त किया था कि उसे को देव, मानव, अस्त्र-शस्त्र नहीं मार सकेगा और न ही उस पर गर्मी, सर्दी व वर्षा आदि का कोई असर होगा। इसके बाद तो उसने अपने अत्याचार और भी बढ़ा दिये। किसी को भी उसका वध करने में सफलता नहीं मिल रही थी। सभी उससे तंग आ चुके थे। लेकिन ढुंढी भगवान शिव के शाप से भी पीड़ित थी। इसके अनुसार बच्चे अपनी शरारतों से उसे खदेड़ सकते थे व उचित समय पर उसका वध भी कर सकते थे। जब राजा पृथु ने राज पुरोहितों से कोई उपाय पूछा तो उन्होंने फाल्गुन पूर्णिमा के दिन का चयन किया क्योंकि यह समय न गर्मी का होता है न सर्दी का और न ही बारिश का। उन्होंने कहा कि बच्चों को एकत्रित होने की कहें। आते समय अपने साथ वे एक-एक लकड़ी भी लेकर आयें। फिर घास-फूस और लकड़ियों को इकट्ठा कर ऊंचे ऊंचे स्वर में मंत्रोच्चारण करते हुए अग्नि की प्रदक्षिणा करें। इस तरह जोर-जोर हंसने, गाने व चिल्लाने से पैदा होने वाले शोर से राक्षसी की मौत हो सकती है। पुरोहित के कहे अनुसार फाल्गुन पूर्णिमा के दिन वैसा ही किया गया। इस प्रकार बच्चों ने मिल-जुल कर धमाचौकड़ी मचाते हुए ढुंढी के अत्याचार से मुक्ति दिलाई। मान्यता है कि आज भी होली के दिन बच्चों द्वारा शोरगुल करने, गाने बजाने के पिछे ढुंढी से मुक्ति दिलाने वाली कथा की मान्यता है।
होली का त्यौहार मनाने का संबंध भगवान शिव व माता पार्वती की एक कथा से जुड़ा है। कथा कुछ यूं है कि माता पार्वती जो कि हिमालय की पुत्री थी वे भगवान भोलेनाथ को चाहने लगती हैं और उनसे विवाह करना चाहती हैं। वहीं भगवान भोलेनाथ हमेशा तपस्या में लीन रहने वाले। ऐसे में माता पार्वती के लिये भगवान शिव के प्रति अपने प्रेम का इजहार करना और उनके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखना बहुत मुश्किल हो रहा था। तब उनकी सहायता के लिये कामदेव आते हैं और पुष्प बाण के जरिये भगवान शिवशंकर की तपस्या को भंग कर देते हैं। भगवान भोलेनाथ की तपस्या भंग करने का परिणाम शायद वे जानते नहीं थे, जैसे ही भगवान भोलेनाथ की आंखे खुली उन्हें कामदेव की इस हरकत पर बहुत अधिक क्रोध आया व अपने तीसरे नेत्र से उन्हें भस्म कर दिया लेकिन जैसे ही माता पार्वती सामने आयी उनका क्रोध कुछ शांत हुआ माता पार्वती के प्रस्ताव को उन्होंने स्वीकार कर लिया।
माना जाता है कि होली के त्यौहार पर अपनी कामवासना को अग्नि में जलाकर निष्काम भाव के प्रेम की विजय का उत्सव मनाया जाता है। हालांकि इसी कथा को थोड़ा दूसरे नजरिये से भी प्रस्तुत किया जाता है जिसके अनुसार कामदेव के भस्म होने पर उनकी पत्नी रति भोलेनाथ की आराधना कर उन्हें प्रसन्न करती हैं और कामदेव को जीवित करने की प्रार्थना करती हैं। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भोलेनाथ कामदेव को जीवित कर देते हैं। जिस दिन यह सब हुआ वह दिन फाल्गुन मास की पूर्णिमा यानि की होली का दिन माना जाता है। लोक गीतों में तो रति विलाप के गीत भी मिलते हैं व अग्निदान में चंदन की लकड़ी दी जाती है ताकि कामदेव को जलने में होने वाली पीड़ा से मुक्ति मिले। मान्यता है कि कामदेव के पुन: जीवित होने की खुशी में अगले दिन रंगों वाली होली मनाई जाती है।
राक्षसी पूतना के वध की कथा भी होली के इस पर्व से जोड़ी जाती है। कहते हैं जब कंस के लिये यह आकाशवाणी हुई कि गोकुल में उसे मारने वाले ने जन्म ले लिया है तो कंस ने उस दिन पैदा हुए सारे शीशुओं को मरवाने का निर्णय लिया। इस काम के लिये उसने पुतना राक्षसी को चुना। पुतना बच्चों को स्तनपान करवाती जिसके बाद वे मृत्यु को प्राप्त हो जाते लेकिन जब उसने श्री कृष्ण को मारने का प्रयास किया तो श्री कृष्ण ने पूतना का वध कर दिया। यह सब भी फाल्गुन पूर्णिमा के दिन हुआ माना जाता है जिसकी खुशी में होली का पर्व मनाया जाता है।