हिंदू धर्म में 16 संस्कारों का अपना ही एक अलग महत्व है। मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक 16 तरह के अनिवार्य कर्म किए जाते हैं जिसे सनातन धर्म में संस्कार की संज्ञा दी जाती है। हर एक संस्कार को करने का निश्चित समय और उम्र तय की गई है। इनमें से एक संस्कार है यज्ञोपवीत संस्कार, जो यज्ञ+उपवीत से मिलकर बना है, जिसका अर्थ होता है यज्ञ-हवन करने का अधिकार प्राप्त करना। वहीं इस संस्कार को सनातन धर्म में उपनयन संस्कार कहा जाता है। उपनयन का अर्थ होता है ब्रह्म यानि ईश्वर और ज्ञान के पास ले जाना।
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इस संस्कार के समय एक पवित्र सफेद रंग का तीन धागों वाला सूत्र यानि जनेऊ धारण कराया जाता है। जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। इस सूत के पवित्र धागे को बाएं कंधे के ऊपर से लेकर दाएं कंधे की भुजा तक पहना जाता है। शास्त्रों के मुताबिक दाएं कान में आदित्य, वसु, रुद्र, वायु, अग्नि, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास होने की वजह से स्रिर्फ स्पर्श करने से ही आचमन का फल प्राप्त होता है। ज्योतिष के अनुसार, जनेऊ में 5 गांठ लगाई जाती हैं जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक होती हैं। वहीं जनेऊ अविवाहित लोगों को एक धागे का पहनना चाहिए, विवाहित लोगों को 2 धागे वाला और जिनकी शादी हो गई है और उनकी संतान है उन्हें 3 धागे वाला ब्रह्मसूत्र धारण करना चाहिए। जनेऊ की लंबाई 96 अंगुल होती है। इसे धारण करने का मतलब होता है कि 64 कलाओं और 32 विद्याओं से परिपूर्ण होना है।
शास्त्रों के अनुसार, जनेऊ संस्कार किसी बालक के किशोरावस्था से युवास्था में प्रवेश करने पर किया जाता है। उपनयन संस्कार के लिए अलग-अलग वर्ग में अलग आयु का महत्व है जैसे ब्राह्मण बालक के लिए 07 वर्ष, क्षत्रिय बालक के लिए 11 वर्ष और वैश्य बालक के लिए 13 वर्ष के पूर्व का समय शुभ माना गया है। माना जाता है कि जनेऊ संस्कार करने से बालक के पिछले जन्म के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। पौराणिक काल में उपनयन संस्कार के बाद ही बालक को शिक्षा के लिए भेजा जाता था क्योंकि इस संस्कार से बालक की आयु और बुद्धि बढ़ती है।
ज्योतिष के अनुसार, यज्ञोपवीत संस्कार की शुभ तिथियां माघ माह से लेकर 6 महीने तक का होती है। इस संस्कार के लिए माह की प्रथमा, चतुर्थी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावस्या या फिर पूर्णिमा तिथि शुभ मानी जाती है। वहीं यदि वार को लेकर चले तो बुधवार, गुरुवार और शुक्रवार को सबसे उत्तम दिन माना गया है। वहीं यदि आपको जनेऊ त्यागना हो तो इसके लिए मंगलवार और शनिवार सही दिन होता है।
सनातन धर्म और हिंदू धर्म में जनेऊ संस्कार का अपना ही एक महत्व है। कई बार हिंदू धर्म के अनुष्ठानों में जनेऊधारी लोगों को ही शामिल किया जाता है। आमतौर पर जनेऊ का धार्मिक, वैज्ञानिक और ज्योतिषीय महत्व भी है। हिंदू धर्म में जनेऊ संस्कार का सीधा संबंध ब्रह्मा, विष्णु और महेश से है। इसके तीन सूत्र त्रिदेव का प्रतीक माना जाता है। जनेऊ को ब्रह्मसूत्र माना जाता है यदि यह अपवित्र हो जाए तो इसे बदल देना चाहिए।
यज्ञोपवीत संस्कार की ख़ासियत यह है कि यह संस्कार केवल सनातन धर्म में ही नहीं होता है बल्कि यह संस्कार अलग-अलग धर्मों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। जिस तरह मुस्लिम समुदाय के लोग मक्का में काबा जाने से पहले इस संस्कार को करते हैं। बौद्ध धर्म में यदि आप बुद्ध की मूर्ति को गौर से देंखे तो आपको उनकी छाती में जनेऊ जैसी पतली रेखा दिखाई देगी। वहीं जैन धर्म में भी इस संस्कार को किया जाता है। सिख धर्म में जनेऊ संस्कार को ‘अमृत संचार’ कहते हैं। क्रिश्चियन लोग इस संस्कार को ‘बपस्तिमा’ कहते हैं। वहीं यहूदियों में दीक्षा के लिए पहले खतना किया जाता है।
ज्योतिष के अनुसार, जनेऊ में 3 सूत्र होते हैं और उसमें 9 गांठें होती हैं। माना जाता है कि जिनका संबंध ब्रह्मांड में स्थित 9 ग्रहों से होता है जिनकी चाल का असर आपके जीवन में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पड़ता है। श्वेत रंग का धागा शुक्र ग्रह से संबंधित होता है और शुक्र ग्रह ऐश्वर्य, धन, सौभाग्य और प्रेम का कारक है। वहीं यज्ञोपवीत के दौरान इस श्वेत धागे को पीले रंग में रंगा जाता है जिसका संबंध बृहस्पति से हो जाता है और यह ग्रह विद्य़ा, बुद्धि, धन-संपत्ति और भाग्य का कारक है।
यज्ञोपवीत संस्कार के लिए एक यज्ञ का आयोजन किया जाता है। इस यज्ञ में जिन बालकों को जनेऊ संस्कार कराना होता है वह अपने परिवार सहिंत उपस्थित होते हैं। जनेऊ संस्कार के समय सिले वस्त्र धारण नहीं किए जाते हैं और गले में पीले रंग का वस्त्र धारण किया जाता है। इस संस्कार के दौरान हाथ में एक दंड लेने का भी प्रावधान है और बालक का मुंडन भी करवाया जाता है। सर्वप्रथम स्नानादि के बाद बालक के सिर पर चंदन केसर का लेप लगाया जाता है और इसके बाद जनेऊ धारण कराकर ब्रह्मचारी बनाते हैं। फिर हवन कराया जाता है और इसके बाद 10 बार गायत्री मंत्र का मंत्रोच्चार करते हुए देवताओं का आह्वान कराया जाता है। तत्पश्चात् बालक को उसकी उम्र के बालकों के साथ बिठाकर चूरमा खिलाते हैं। फिर गुरु, पिता या बड़े भाई के द्वारा बालक को गायत्री मंत्र पढ़कर सुनाया जाता है और कहा जाता है कि आज से तू अब ब्राह्मण हुआ।
इसके बाद पटुआ की मेखला (करधनी) को पहनाया जाता है और एक हाथ में दंड दिया जाता है। बालक उपस्थित लोगों से भिक्षा मांगता है और शाम को भोजन के पश्चात् दंड़ को कंधे पर रखकर घर से भागने लगता है और कहता है कि वह पढ़ने के लिए काशी जा रहा है, लेकिन शादी का लालच देकर लोग उसे रोक लेते हैं। इसके बाद बालक ब्राह्मण मान लिया जाता है।
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुंच शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।