भगवान भोलेनाथ को प्रिय सावन का महीना इस बार 4 जुलाई से शरू हो रहा है। इस माह में भक्त भगवान को प्रसन्न करने के लिए कई प्रकार के जतन करते हैं। हर साल लाखों श्रद्धालु भगवान शिव को खुश करने के लिए कांवड़ यात्रा निकालते हैं।
हिंदू मान्यताओं के अनुसार, ऐसा करने से भगवान शिव भक्तों की सारी मनोकामना पूरी करते हैं। इस साल कांवड़ यात्रा फूलों की वर्षा के साथ निकाली जायेगी। आगामी 14 जुलाई से शुरू होने वाले सावन माह भगवान शिव को सबसे अधिक प्रिय है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस माह महादेव अपने भक्तों से जल्द प्रसन्न होते हैं। मान्यता है कि अगर कोई जातक सावन महीने में पूरी श्रद्धा के साथ व्रत रखता है, तो उसे भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त होता है। हर साल श्रद्धालु भगवान शिव को खुश करने के लिए कांवड़ यात्रा निकालते हैं। बीते दो वर्षों में कोरोना काल के चलते प्रशासन ने कांवड़ यात्रा पर पूरी तरह से रोक लगा रखी थी। लेकिन इस वर्ष कांवड़ यात्रा पूरी धूमधाम से फूलों की वर्षा के साथ निकाली जाने की तैयारी की जा रही हैं।
वहीं, लाखों भक्त भगवान शिव को खुश करने के लिए हरिद्वार और गंगोत्री धाम की यात्रा करते हैं। इन तीर्थ स्थलों से गंगा जल से भरी कांवड़ को अपन कंधों पर रखकर पैदल लाते हैं। फिर गंगा जल से भगवान शिवजी का अभिषेक किया जाता है। इसी यात्रा को कांवड़ यात्रा कहते है। पहले लोग पैदल ही कांवड़ यात्रा करते थे। हालांकि अब भक्त बाइक, कार या अन्य साधनों का इस्तेमाल करने लगे हैं। इसके साथ ही अब कई भक्त पास के ही गंगाघाट से गंगाजल कांवड़ में भरकर निकट के शिव मंदिर में भगवान का अभिषेक करते हैं। कुछ भक्त मनोकामना पूर्ति के बाद भी कांवड़ यात्रा निकालते हैं।
सावन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मासिक सावन शिवरात्रि मनाई जाएगी साल 2023 में सावन महीने में मासिक शिवरात्रि 15 जुलाई को है।
सावन महीने की चतुर्दशी - 15 जुलाई शाम 8:32 बजे से शुरू 16 जुलाई को रात्रि 10:08 बजे समाप्त.
रात्रि पहले प्रहर पूजा समय - शाम 07:07 बजे से रात 09:51 बजे तक
रात्रि दूसरे प्रहर पूजा समय - रात्रि 09:51 बजे से रात्रि 12:35 बजे तक, 16 जुलाई
रात्रि तीसरे प्रहर पूजा समय - 12:35 पूर्वाह्न से 03:18 पूर्वाह्न, 16 जुलाई
रात्रि चौथे प्रहर पूजा समय - प्रातः 03:18 बजे से प्रातः 06:02 बजे तक, 16 जुलाई
16 जुलाई को शिवरात्रि पारण का समय - सुबह 06:02 बजे से दोपहर 03:51 बजे तक
निशिता काल पूजा समय - रात्रि 12:13 से 12:57 तक, 16 जुलाई (अवधि - 00 घंटे 44 मिनट)
मान्यता है कि कांवड़ लेकर भगवान शिव को गंगा जल अर्पित करने से भगवान भक्त की सभी मुराद पूरी करते हैं। कहा जाता है कि जो भी सावन महीने में कंधे पर कांवड़ रखकर बोल-बम का नारा लगाते हुए पैदल यात्रा करता है, उसे अश्वमेघ यज्ञ करने जितना फल प्राप्त होता है। मान्यता है कि मृत्यु के बाद उसे शिवलोक की प्राप्ति होती है।
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इस यात्रा को शुरू करने से पहले श्रद्धालु बांस की लकड़ी पर दोनों ओर टिकी हुई टोकरियों के साथ किसी पवित्र स्थान पर पहुंचते हैं और इन्हीं टोकरियों में गंगाजल लेकर लौटते हैं। इस कांवड़ को लगातार यात्रा के दौरान अपने कंधे पर रखकर यात्रा करते हैं, इस यात्रा को कांवड़ यात्रा और यात्रियों को कांवड़िया कहा जाता है।
पौराणिक कथा की बात करें कांवड़ यात्रा के संदर्भ में दो प्रकार की कथायें सामने आती हैं। इनमें से मान्यता के अनुसार के अनुसार जब देवताओं और असुरों के बीच समुद्र मंथन चल रहा था। उस मंथन से 14 रत्न निकले थे। उनमें एक हलाहल विष भी था। जिससे संसार के नष्ट होने का डर था। उस समय सृष्टि की रक्षा के लिए शिवजी ने उस विष को पी लिया, लेकिन अपने गले से नीचे नहीं उतारा। जहर के प्रभाव से भोलेनाथ का गला नीला पड़ गया। इस वजह से उनका नाम नीलकंड पड़ा। कहा जाता है कि रावण कांवड़ में गंगाजल लेकर आया था। उसी जल से उसने शिवलिंग का अभिषेक किया। तब जाकर शिवजी को विष से राहत मिली। वहीं, कुछ विद्वानों का मानना है कि भगवान परशुराम जी भगवान शिव के परम भक्त थे। एक बार वे कांवड़ लेकर उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के पास पुरा महादेव गये थे। उन्होंने गढ़मक्तेश्वर से गंगाजल लेकर भोलेनाथ का जलाभिषेक किया। उस समय श्रावण मास चल रहा था, तब से लगातार कांवड़ यात्रा निकालने की परंपरा शुरू हो गयी।
जानकारों की मानें तो अंग्रेजों ने 19वीं सदी की शुरुआत से भारत में कांवड़ यात्रा का जिक्र अपनी किताबों और लेखों में किया। कई पुराने चित्रों में भी ये दिखाया गया है। लेकिन कांवड़ यात्रा 1960 के दशक तक बहुत बड़े आयोजनों का हिस्सा नहीं थी। कुछ साधु और श्रृद्धालु नंगे पैर चलकर हरिद्वार या बिहार में सुल्तानगंज तक जाते थे और वहां से गंगाजल लेकर लौटते थे, जिससे भगवान शिव का अभिषेक किया जाता था। 80 के दशक के बाद ये बड़े धार्मिक आयोजन में बदलने लगा। अब तो ये काफी बड़ा आयोजन हो चुका है।
कांवड यात्रा के कई नियम हैं। मान्यताओं के अनुसार कांवड़ यात्रा के दौरान नशा, मांस, मदिरा और तामसिक भोजन करना वर्जित होता है। इसके अलाना बिना स्नान किए कांवड़ को हाथ भी नहीं लगाया जा सकता है। इसके साथ ही कावड़ को जमीन पर नहीं रखा जाता है। कांवड़ या तो स्टैंड या फिर किसी पेड़ के ऊपर रख सकते हैं। यदि किसी भक्त ने कांवड़ को जमीन पर रख दिया तो उसे फिर से कांवड़ में गंगाजल भफरकर लाना पड़ेगा।
कोरोना संक्रमण के चलते पिछले दो साल से प्रतिबंधित कांवड़ यात्रा इस बार फिर से शुरू होगी। इसकी तैयारी अभी से शुरू की जा चुकी है। उत्तराखंड और यूपी सरकार ने इसकी तैयारियां शुरू कर दी हैं। कांवड़ यात्रा की तैयारियों के लिए पश्चिमी उप्र के जिलों में प्रशासन ने इसके लिए तैयारियां शुरू कर दी हैं। वहीं, इस बार कांवड़ियों के ऊपर आसमान से हैलीकॉप्टर के माध्यम से पुष्पवर्षा की जाएगी। यह पुष्पवर्षा उततराखंड से लेकर यूपी तक शिवभक्तों के ऊपर की जाएगी। इसके साथ ही शिवभक्तों को कोविड प्रोटोकॉल का पालन करने की भी हिदायत दी गयी है।
सामान्य कांवड़ यात्रा: सामान्य कांवड़ ले जाने वाले भक्त आराम से जाते हैं। वे जगह-जगह पर जरूरत या थकावट महसूस होने पर यात्रा के दौरान विश्राम करते जाते हैं।
खड़ी कांवड़ यात्राः इस कांवड़ यात्रा को काफी कठिन माना जाता है। इस यात्रा के दौरान न तो कांवड़ को नीचे रखा जाता है, न ही कहीं टांगा जा सकता है। कांविड़या को भोजन या आराम करना है तो उसे कांवड़ या तो स्टैंड पर रखनी होगी या फिर किसी दूसरे कांवड़िया को देनी होती है।
डाक कांवड़ यात्रा : इसमें शिव के जलाभिषेक तक लगातार चलते रहना होता है। डाक कांवड़ ले जाने वाले भक्त इस दौरान आराम नहीं करते हैं। इसमें जब मंदिर से दूरी 36 या 24 घंटे की रह जाती है तो कांवड़िये कांवर लेकर दौड़ते हैं। हालांकि यह काफी मुश्किल होता है, इसके लिए भक्त संकल्प करते हैं।
दांडी कांवड़ यात्रा : ये भक्त नदी तट से शिवधाम तक की यात्रा दंड देते हुए पूरी करते हैं। ऐसे भक्तों को शिवधाम तक जाने में महीने भर का समय तक लग जाता है।
झांकी वाली कांवड़ यात्राः आजकल इस प्रकार से भी कांवड़ यात्रा निकाली जाती है। इस प्रकार की कांवड़ यात्रा में भक्त किसी जीप या ट्रक में भगवान शिव की प्रतिमा का श्रंगार करते हुए , गाते-बजाते निकलते हैं।
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