प्रभु श्री राम भगवान विष्णु के सातवें अवतार माने जाते हैं। भगवान विष्णु ने जब भी अवतार धारण किया है अधर्म पर धर्म की विजय हेतु लिया है। रामायण अगर आपने पढ़ी नहीं टेलीविज़न पर धारावाहिक के रूप में देखी जरूर होगी। लेकिन बावजूद इसके रामायण के बहुत से प्रसंग ऐसे हैं जिनसे अधिकतर लोग अनभिज्ञ हैं। ऐसे ही प्रभु श्री राम के जन्म की कथा भी है। यह तो आप सब ने देखा ही होगा कि राजा दशरथ ने संतान प्राप्ति के लिये पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाया था जिसके प्रताप से उनकी तीनों रानियों को पुत्र प्राप्ति हुई। आइये जानते हैं श्री राम की जन्म कथा के उन पहलुओं को जिनसे अधिकतर लोग अंजान हैं।
प्रभु श्री राम की जन्मकथा
श्री राम के जन्म की कथा का वर्णन वाल्मिकी रामायण व रामचरित मानस दोनों में ही मिलता है एक और महर्षि वाल्मिकी श्री राम को मानव मात्र के रूप में वर्णित करते हैं तो महाकवि तुलसीदास उन्हें ईश्वर रूप में व्याख्यायित करते हैं। अयोध्या नरेश दशरथ की तीन पत्नियां थी, किसी तरह का कोई दुख नहीं था लेकिन एक चिंता बड़ी भारी थी कि तीनों रानियों में से किसी से भी पुत्र प्राप्ति न होने से राज्य के उत्तराधिकारी का संकट छा रहा था। तब महाराज दशरथ की गुरुमाता महर्षि वसिष्ठ की पत्नी ने इस पर चिंता जताते हुए महर्षि के सामने अपनी शंका जाहिर की कि आपके शिष्य पुत्र विहीन हैं ऐसे में राज-पाट को उनके बाद कौन संभालेगा, तब महर्षि बोले कि जब दशरथ के ज़हन में यह विषय है ही नहीं तो फिर बात कैसे आगे बढ़ सकती है। तब गुरुमाता एक दिन अपने पुत्र को गोद में लेकर दशरथ के महल में जा पंहुची, गुरु मां की गोद में बालक को देखकर दशरथ लाड़ लड़ाने लगे तो गुरु मां ने कहा कि आप तो महर्षि के शिष्य हैं लेकिन आपका तो कोई पुत्र नहीं है ऐसे में इसका शिष्य कौन बनेगा। गुरु मां के वचन सुनकर दशरथ को ग्लानि हुई और वे महर्षि वशिष्ठ से पुत्र प्राप्ति के उपाय हेतु उनके चरणों में गिर पड़े।
इस पर महर्षि ने कहा कि आपको पुत्र प्राप्ति तो हो सकती है लेकिन उसके लिये पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाना पड़ेगा। तब दशरथ बोले गुरुदेव तो देर किस बात की है जब चाहे आप शुरु कर सकते हैं। तब महर्षि बोले राजन यह इतना सरल नहीं है। जो भी पुत्रेष्ठि यज्ञ करेगा उसे अपनी पूरे जीवन की साधना की इस यज्ञ में आहुति देनी पड़ेगी। दशरथ चिंतित हुए बोले हे ऋषि श्रेष्ठ ऐसा करने के लिये कौन तैयार हो सकता है। फिर उन्होंने दशरथ की पुत्री शांता की याद दिलाई जिसे उन्होंने रोमपाद नामक राजा को गोद दे दिया था और उन्होंने शांता का विवाह ऋंग ऋषि से किया था। महर्षि बोले यदि शांता चाहे तो ऋंग ऋषि से यह यज्ञ करवाया जा सकता है। तब शांता ने अपने पति ऋषि ऋंग को इसके लिये तैयार किया बदले में इतना धन उन्हें दान में दिया गया जो उनकी अपनी संतान के भरण-पोषण के लिये जीवन पर्यंत पर्याप्त रहे।
यज्ञ करवाया गया और यज्ञ से प्राप्त चरा (खीर) तीनों रानियों को दी गई। प्रसाद ग्रहण करने से तीनों रानियों ने गर्भधारण किया और चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य, मंगल, शनि, बृहस्पति तथा शुक्र जब अपने उच्च स्थानों में विराजमान थे तब कर्क लग्न का उदय होते ही माता कौशल्या के गर्भ से भगवान श्री विष्णु श्री राम रूप में अवतरित हुए। इनके पश्चात शुभ नक्षत्रों में ही कैकेयी से भरत व सुमित्रा से लक्ष्मण व शत्रुघ्न ने जन्म लिया।
समस्त राज्य में आनंद उल्लास छा गया। गंधर्वों का गान हुआ, अप्सराओं ने नृत्य किया। महाराज दशरथ ने राजद्वार पर आशीर्वाद देने पंहुचे समस्त भाट, चारण, ब्राह्मणो व गरीबों को दान दक्षिणा देकर विदा किया। महर्षि वशिष्ठ ने चारों पुत्रों का नामकरण किया।
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