Dev Uthani Ekadashi Vrat Katha: क्या आपने कभी सोचा है कि देव उठानी एकादशी (जिसे प्रबोधिनी एकादशी भी कहा जाता है) का इतना धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व क्यों माना जाता है? इस दिन भगवान विष्णु चार महीने की योग निद्रा से जागते हैं और फिर से सृष्टि के संचालन का कार्य आरंभ करते हैं। यही कारण है कि इस दिन को “देवोत्थान” यानी देवताओं के जागने का पर्व कहा जाता है। इस दिन से विवाह, मांगलिक कार्य, गृह प्रवेश और पूजा-पाठ जैसे शुभ कार्यों की पुनः शुरुआत होती है। आइए जानते हैं इस दिन से जुड़ी पौराणिक कथा।
एक बार की बात है, एक धर्मनिष्ठ राजा का राज्य था जहाँ हर व्यक्ति — चाहे वह राजा का सेवक हो, आम प्रजा हो या फिर पशु-पक्षी ही क्यों न हों — सभी एकादशी के दिन व्रत रखते थे। उस दिन पूरे राज्य में कोई भी अन्न नहीं खाता था। केवल भगवान विष्णु की उपासना और भक्ति का माहौल होता था।
एक दिन किसी दूसरे राज्य का एक व्यक्ति उस राजा के दरबार में नौकरी माँगने आया। राजा ने कहा — “मैं तुम्हें नौकरी पर रख सकता हूँ, लेकिन एक शर्त है। एकादशी के दिन पूरे राज्य में कोई अन्न नहीं खाता। उस दिन तुम्हें भी केवल फलाहार ही मिलेगा।”
वह व्यक्ति बोला — “ठीक है महाराज, मैं मानता हूँ।”
दिन बीते, और एकादशी का दिन आया। जब सभी लोग फलाहार कर रहे थे, उस व्यक्ति को भी फल और दूध दिया गया। लेकिन उसका मन अशांत था। वह राजा के सामने जाकर गिड़गिड़ाने लगा — “महाराज, इससे मेरा पेट नहीं भरता। मुझे अन्न दीजिए, नहीं तो मैं भूखा मर जाऊँगा।”
राजा ने कहा — “मैंने तुम्हें पहले ही चेताया था, एकादशी को अन्न वर्जित है।”
लेकिन वह व्यक्ति अन्न छोड़ने को तैयार न हुआ। अंततः राजा ने कहा — “ठीक है, तुम स्वयं अपने कर्म का फल जानो,” और उसे आटा, चावल और दाल दे दी।
वह व्यक्ति खुशी-खुशी नदी के किनारे पहुँचा, स्नान किया और भोजन बनाने लगा। जब सब तैयार हो गया, तो उसने भगवान को पुकारा — “आइए प्रभु! भोजन तैयार है।”
यह सुनते ही स्वयं भगवान विष्णु पीताम्बर धारण किए, चतुर्भुज रूप में उसके सामने प्रकट हो गए। वे प्रेमपूर्वक उसके साथ बैठकर भोजन करने लगे। भोजन के बाद भगवान अंतर्धान हो गए, और वह व्यक्ति अपने काम पर लौट आया।
कुछ दिनों बाद, अगली एकादशी आई। उस दिन वह व्यक्ति राजा के पास गया और बोला — “महाराज, इस बार मुझे दुगना अन्न चाहिए।”
राजा ने आश्चर्य से पूछा — “क्यों?”
वह बोला — “महाराज, पिछली बार मेरे साथ भगवान विष्णु भी भोजन करने आए थे, इसलिए अन्न कम पड़ गया।”
यह सुनकर राजा चकित रह गया। वह बोला — “क्या भगवान सचमुच तुम्हारे साथ भोजन करते हैं? मैं तो नित्य पूजा, व्रत और भक्ति करता हूँ, फिर भी मुझे उनके दर्शन नहीं हुए।”
वह व्यक्ति बोला — “महाराज, यदि विश्वास न हो तो इस बार मेरे साथ चलकर स्वयं देख लें।”
अगली एकादशी को राजा उसके साथ गया और एक पेड़ के पीछे छिपकर बैठ गया। वह व्यक्ति हमेशा की तरह स्नान कर भोजन बनाने लगा। फिर उसने बार-बार भगवान को पुकारा — “हे विष्णु! आओ प्रभु, भोजन तैयार है।”
लेकिन इस बार भगवान नहीं आए। शाम तक वह पुकारता रहा, फिर दुखी होकर बोला — “हे प्रभु! यदि आप आज नहीं आए तो मैं नदी में कूदकर प्राण त्याग दूँगा।”
यह कहकर वह सच में नदी की ओर बढ़ा। उसके सच्चे भाव और दृढ़ निश्चय को देखकर भगवान विष्णु तुरंत प्रकट हुए और बोले — “रुको भक्त! मैं आ गया हूँ।”
फिर भगवान उसके साथ बैठकर प्रेमपूर्वक भोजन करने लगे। भोजन समाप्त होने के बाद उन्होंने कहा — “अब तुम मेरे धाम चलो,” और उसे अपने दिव्य विमान में बिठाकर वैकुंठ ले गए।
यह सब देखकर राजा स्तब्ध रह गया। उसके मन में विचार उठा — “मैं तो वर्षों से व्रत रखता हूँ, पूजा करता हूँ, लेकिन मेरे मन में अभी तक सच्ची भक्ति नहीं थी। यह व्यक्ति तो नियम तोड़कर भी भगवान के प्रति निष्कपट भाव रखता था, इसलिए उसे प्रभु के दर्शन हुए।”
उस दिन के बाद राजा का दृष्टिकोण बदल गया। उसने समझ लिया कि केवल व्रत, उपवास या कर्मकांड करने से नहीं, बल्कि शुद्ध हृदय, सच्ची श्रद्धा और प्रेम से ही भगवान की प्राप्ति होती है।
वह व्यक्ति तो वैकुंठ चला गया, और राजा ने भी उसी दिन से मन, वचन और कर्म से सच्चे भाव से व्रत करना आरंभ कर दिया। जीवन के अंत में उसे भी स्वर्ग लोक की प्राप्ति हुई।
यह कथा सिखाती है कि व्रत का सार केवल भोजन त्याग में नहीं, बल्कि भाव की पवित्रता में है। जब मन निष्कपट होता है, तब भगवान स्वयं अपने भक्त के पास आ जाते हैं।
यह भी पढ़ें: कब होगा बृहस्पति का कर्क राशि में वक्री 2025 में?
एक राज्य था जहाँ राजा न्यायप्रिय और दयालु था। उसकी प्रजा सुख-शांति से रहती थी और सभी लोग एकादशी के दिन फलाहार रखते थे — न अन्न बेचा जाता, न कोई घरों में अन्न पकाता।
एक दिन भगवान ने राजा की परीक्षा लेने का मन बनाया। वे एक मनोहर सुंदरी का रूप धारण कर नगर की सड़क पर बैठ गए। राजा वहाँ से गुजरते हुए उस सुंदरी को देखकर अचंभित रह गया और पूछा — “हे सुंदरी! तुम कौन हो और यहाँ क्यों बैठी हो?”
सुंदरी रूप के भगवान ने कहा — “मैं निःसहाय हूँ, इस नगर में मेरा कोई परिचित नहीं। मुझे आश्रय और सम्मान चाहिए।”
राजा उस रूप की सम्मोहन से प्रभावित हो गया और तुरंत बोला — “तुम मेरे महल आकर मेरी रानी बनकर रहो।”
सुंदरी ने शर्त रखी — “ठीक है, पर राज्य का अधिकार मुझे सौंपना होगा। राज्य पर मेरा पूर्ण अधिकार होगा; जो मैं आज कहूँ, वही होगा।”
राजा ने मोह में आकर यह शर्त स्वीकार कर ली।
अगले दिन एकादशी थी। रानी ने आदेश दे दिया कि बाजारों में अन्न बेचा जाए और रानी ने घर में मांस-भोजन बनवाकर राजा से खाने को कहा। राजा ने स्मरण कराया — “आज एकादशी है, मैं केवल फलाहार करूँगा।”
तब रानी कटु स्वर में बोली — “या तो आप मेरे कहे अनुसार भोजन करो, नहीं तो मैं किसी बड़े राजकुमार का सिर काट डालूँगी।”
राजा संकट में पड़ गया। तभी बड़ी रानी (राजमाता) ने कहा — “महाराज! धर्म मत छोड़ो। पुत्र का त्याग हो सकता है, पर धर्म का त्याग नहीं।”
उसी समय बड़ा राजकुमार खेलकर आया। माँ की आंखों में आंसू देखकर उसने कारण पूछा और जब सब कुछ जान लिया तो निश्चय कर लिया— “मैं अपना जीवन देता हूँ ताकि पिता का धर्म बना रहे।” वह सिर देने को तैयार हो गया।
राजा पुत्र का त्याग स्वीकार ही करने लगा था कि तभी रानी का स्वर बदल गया — वह सुंदरी रूप में प्रकट हुए भगवान विष्णु थे। भगवान ने मुस्कुराकर कहा — “राजन्, तुम इस कठोर परीक्षा में उत्तीर्ण हुए।”
भगवान प्रसन्न होकर राजा से वर माँगने लगे। राजा ने विनम्र भाव से कहा — “आपने जो दिया, वही सब है — अब हमारा उद्धार कीजिए।”
तब एक दिव्य विमान प्रकट हुआ। राजा ने राज्य पुत्र को सौंप दिया, विमान में बैठकर परम धाम को प्रस्थान कर गया।
यह भी पढ़ें: जानें 2026 में गृह प्रवेश के लिए शुभ मुहूर्त।
देव उठानी एकादशी हमें यह सिखाती है कि जीवन में ठहराव के बाद फिर से नई शुरुआत करना जरूरी है। जैसे भगवान विष्णु चार महीने की निद्रा के बाद जागते हैं और सृष्टि का संचालन पुनः प्रारंभ करते हैं, वैसे ही हमें भी अपने जीवन में आत्मिक जागरण लाना चाहिए।
यह दिन सिर्फ पूजा या व्रत का नहीं, बल्कि आत्मिक नवीनीकरण का प्रतीक है — जहां मनुष्य अपने भीतर की निष्क्रियता को समाप्त करके भक्ति, प्रेम और सकारात्मकता से अपने जीवन को पुनः दिशा देता है।
देव उठानी एकादशी भक्ति, आस्था और पुनर्जागरण का पर्व है। यह दिन हमें याद दिलाता है कि भक्ति का वास्तविक अर्थ केवल पूजा-पाठ नहीं, बल्कि सच्चे मन से ईश्वर से जुड़ना है। इस एकादशी पर तुलसी विवाह का आयोजन केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि प्रेम और समर्पण की परिणति है।
जो व्यक्ति इस दिन सच्चे मन से उपवास, पूजा और भक्ति करता है, उसे न केवल सांसारिक सुखों की प्राप्ति होती है बल्कि जीवन में शांति और ईश्वर का आशीर्वाद भी प्राप्त होता है। यही कारण है कि देव उठानी एकादशी को “सभी एकादशियों में श्रेष्ठ” कहा गया है।