हिंदू धर्म और भारतीय परपंरा में श्रीफल यानि नारियल का अपना ही एक अलग महत्व है। किसी भी पूजा में श्रीफल का होना अनिवार्य माना जाता है वरना पूजा अधूरी मानी जाती है। वहीं ज्योतिष के कई उपायों में खासतौर पर नारियल का उपयोग किया जाता है। उन्हें लघु व एकाक्षी नारियल कहते हैं। नारियल को फोड़कर चढ़ाने का रिवाज है और इसे पूजा के बाद प्रसाद के तौर पर बांटा भी जाता है। वैसे तो नारियल को शुभ और सबसे पवित्र फल कहा जाता है और आमतौर पर शादी, त्योहार और किसी भी महत्वपूर्ण पूजा या पूजा सामग्री में नारियल का विशेष महत्व है। इतना ही नहीं, किसी के स्वागत में भी भेंटस्वरूप श्रीफल दिया जाता है। लेकिन क्या आप जानना नहीं चाहते कि श्रीफल यानि नारियल को हिंदू धर्म में अधिक महत्ता क्यो दी जाती है? आखिर नारियल की उत्पत्ति कैसे हुई और इसे श्रीफल क्यो कहा जाता है? तो हम आपको विस्तार से बताते हैं।
दरअसल नारियल बाकी फलों की तरह धरती पर नहीं आया बल्कि इसे स्वर्ग से लाया गया और श्रीफल की उत्पत्ति से जुड़ी हुई दो पौराणिक कथाएं हैं, जो बताती हैं कि धरती पर नारियल का अवतरण कैसे हुआ?
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दरअसल नारियल का प्रादुर्भाव धरती से नहीं बल्कि स्वर्ग से हुआ है। इसलिए इसे स्वर्गलोक का फल भी कहा जाता है। नारियल के बाहरी आवरण को घमण्ड का प्रतीक और आतंरिक आवरण को पवित्रता और शांति का प्रतीक माना जाता है। वैसे तो नारियल को फोड़ने का मतलब होता है कि आप अपने अहंकार और स्वयं को भगवान के सामने समर्पित करते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से अज्ञानता और अहंकार का नाश होता है। इससे आत्मा शुद्ध और पवित्र हो जाती है।
शास्त्रों के अनुसार, पृथ्वी पर जब भगवान विष्णु का अवतरण हुआ तो वह बैकुंठ लोक से 3 चीजें लेकर आए, पहली चीज लक्ष्मी, कामधेनु और तीसरा श्रीफल यानि नारियल। श्रीफल को ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रिय फल कहा जाता है। यही कारण है कि नारियल के वृक्ष को पुराणों में कल्पवृक्ष के नाम से भी संबोधित किया गया है। इस वृक्ष पर तीनों देव(ब्रह्मा, विष्णु और महेश) वास करते हैं। नारियल में उनके वास का प्रमाण भी दिखाई देता है क्योंकि फल में तीन बीज रूपी संकेत दिखाई देते हैं। श्रीफल को तोड़ने के बाद इन बीजों को खाया नहीं जाता है बल्कि भगवान को अर्पित कर दिया जाता है या हवन में आहुति दे दी जाती है।
इसके अलावा श्रीफल को बलि के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है। दरअसल पौराणिक काल में धरती पर पूजन के बाद पशुओं की बलि देने का प्रचलन था, जिसकी वजह से जीवहत्या होती थी। इस जीवहत्या को रोकने के लिए भगवान विष्णु धरती पर श्रीफल लेकर प्रकट हुए ताकि किसी मानव पर जीवहत्या का पाप न लगे और उसकी पूजा भी अधूरी न रहे। तब से नारियल की बलि देने का प्रचलन शुरु हुआ।
आमतौर पर जब बात धर्म से जुड़ी हो तो तर्क-वितर्क की स्थिति पैदा हो ही जाती है। इस आधार पर कई अलग-अलग पौराणिक ग्रंथों में अलग-अलग कथाएं भी विद्यमान हैं। शास्त्रों के अनुसार, मर्यादा पुरुषोत्तम राम के वशंज राजा पृथु के पुत्र सत्यव्रत परमप्रतापी राजा थे। राजा सत्यव्रत ने अपने जीवनकाल के अंतिम चरण में राजपाठ त्याग दिया था और सारा राजपाठ अपने पुत्र राजा हरिश्चंद्र को सौंप दिया था। सत्यव्रत अपने जीवन के आखिरी दौर में स्वर्ग लोक जाने की इच्छा रखते थे लेकिन उन्हें स्वर्ग तक जाने का मार्ग ज्ञात नहीं था।
इस परेशानी को लेकर राजा सत्यव्रत ऋषि विश्वामित्र के आश्रम पहुंचे लेकिन ऋषि वहां पर नहीं थे। विश्वामित्र तपस्या करने गए थे। इस दौरान राजा सत्यव्रत मुनि विश्वामित्र की प्रतीक्षा करने के लिए उन्हीं के आश्रम में ठहर गए। राजा ने विश्वामित्र के आश्रम में रहते हुए, वहां उनके पशुओं की सेवा की, भूखों को भोजन कराया और भी कई परोपकारी कार्य किए। जब तक विश्वामित्र तपस्या करके लौटे तब तक सत्यव्रत की उदारता और दयालु स्वभाव के सभी लोग कायल हो चुके थे।
जब विश्वामित्र तपस्या पूर्ण करके वापस आए तो उन्हें ज्ञात हुआ कि उनकी अनुपस्थिति में राजा सत्यव्रत ने उनके पशुओं की सेवा की।यह सुनकर विश्वामित्र काफी प्रसन्न हुए और उन्होंने सत्यव्रत से कहा कि आपने राजा होने के बावजूद भी आम लोगों की तरह सेवा की यह देखकर मैं काफी प्रसन्न हुआ मैं आपको मनचाहा वरदान देना चाहता हूं।
मुनि की बात सुनकर सत्यव्रत ने कहा कि मैं धरती पर अपने सभी कर्म और धर्म पूरे कर चुका हूं। मुझे अब स्वर्ग जाना है और आप मुझे स्वर्ग जाने का मार्ग प्रशस्त करें। मुनि ने राजा की इच्छा को पूरा किया और धरती से स्वर्ग तक जाने वाली सीढ़ी का रास्ता खोल दिया। सत्यव्रत ने सीढ़ियां देखी और मुनि से आशीर्वाद लेकर चढ़ना शुरु कर दिया। यह देखकर इंद्र और अन्य देवता काफी परेशान हो गए उन्होंने ऋषि विश्वामित्र से मदद मांगी लेकिन मुनि अपने वचन से बंधे हुए थे जिसकी वजह से वह कुछ न कर सके। आखिरी में इंद्र ने ही स्वर्ग की सीढ़ियों से सत्यव्रत को धक्का दे दिया और वह सीधे धरती पर आ गिरे। राजा सत्यव्रत गिरते ही ऋषि विश्वामित्र के पास पहुंचे। राजा ने कहा कि देवराज इंद्र नहीं चाहते हैं कि कोई मनुष्य स्वर्ग में दाखिल हो इसलिए उन्होंने मुझे धक्का दे दिया। अब आप ही बताएं कि आपके वचन का पालन कैसे होगा?
विश्वामित्र भलीभांति जानते थे कि जब तक इंद्र स्वर्गलोक में हैं तब तक वह सत्यव्रत को स्वर्ग नहीं आने देंगे लेकिन विश्वामित्र ने देवताओं को बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन वे नहीं माने। अंत में विश्वामित्र ने दूसरा स्वर्ग बनाने का मार्ग खोजा। दूसरे स्वर्ग को बनाने के लिए मुनि ने एक मजबूत खंभे का निर्माण किया। इस नींव पर दूसरे स्वर्गलोक का निर्माण हुआ, जिसका नाम त्रिशंकु कहलाया। हालांकि यह स्वर्ग से विपरीत दिशा में स्थित था और इसके राजा सत्यव्रत को बनाया गया। जिस खंभे पर दूसरे स्वर्गलोक की नींव रखी गई वह अनंतकाल के बाद नारियल का पेड़ बना। इस प्रकार जो लोग स्वर्ग तक नहीं पहुंच पाए। उन्हें स्वर्ग का फल नारियल के रूप में मिला।
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