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क्या आप जानते हैं कि तुलसी विवाह सिर्फ एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि आत्मिक एकता का प्रतीक भी है? इस दिन तुलसी माता और भगवान विष्णु का विवाह संपन्न होता है, जिसे श्रद्धालु बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। यह विवाह धरती पर शुभता और पवित्रता का आरंभ माना जाता है।
क्या आपने कभी तुलसी विवाह के पीछे की कथा सुनी है? हर साल कार्तिक शुक्ल एकादशी या द्वादशी के दिन तुलसी माता का विवाह भगवान विष्णु के शालिग्राम स्वरूप से विधि-विधानपूर्वक किया जाता है। यह दिन सिर्फ देव मिलन का नहीं, बल्कि भक्ति, समर्पण और प्रेम की सच्ची परिणति का उत्सव भी है।
एक बार भगवान शिव ने अपने तेज को समुद्र में फेंक दिया था। उसी तेज से एक दिव्य बालक का जन्म हुआ, जो आगे चलकर ‘जालंधर’ नाम का पराक्रमी दैत्यराज बना। उसने ‘जालंधर नगरी’ नाम से अपनी राजधानी बसाई। बाद में दैत्यराज कालनेमी की पुत्री वृंदा का विवाह उसी जालंधर से हुआ। वृंदा अत्यंत पतिव्रता स्त्री थीं, और उसी के सतीत्व की शक्ति से जालंधर अजेय बन गया था।
सत्ता के नशे में डूबा जालंधर देवी लक्ष्मी को प्राप्त करने की इच्छा से देवताओं के साथ युद्ध करने लगा, परंतु चूंकि लक्ष्मी समुद्र से उत्पन्न हुई थीं, उन्होंने जालंधर को अपना भाई मान लिया। वहाँ से पराजित होकर वह देवी पार्वती को पाने की लालसा लिए कैलाश पर्वत पहुँच गया। उसने भगवान शिव का रूप धारण कर माता पार्वती के समीप जाने का प्रयास किया, पर माँ पार्वती ने योगबल से उसे तुरंत पहचान लिया और अंतर्ध्यान हो गईं।
देवी पार्वती ने क्रोधित होकर यह समूचा प्रसंग भगवान विष्णु को बताया। वे जानते थे कि जालंधर को हराने के लिए वृंदा के पतिव्रत की शक्ति को तोड़ना आवश्यक था। इसलिए भगवान विष्णु ऋषि का वेश धारण कर उस वन में पहुँचे, जहाँ वृंदा एकाकी भ्रमण कर रही थीं। भगवान के साथ दो मायावी राक्षस थे, जिन्हें देखकर वृंदा भयभीत हो गईं। ऋषि रूपी भगवान ने अपनी शक्ति से उन राक्षसों को तुरंत भस्म कर दिया। यह देखकर वृंदा प्रभावित हुईं और उन्होंने अपने पति जालंधर के युद्ध की स्थिति के बारे में पूछा।
तब भगवान विष्णु ने अपनी माया से दो वानर उत्पन्न किए—एक के हाथ में जालंधर का सिर था, दूसरे के हाथ में धड़। अपने पति की यह दशा देखकर वृंदा मूर्छित होकर गिर पड़ीं। होश आने पर उन्होंने विनती की कि ऋषि उसके पति को जीवित करें। विष्णु जी ने अपनी माया से सिर और धड़ को जोड़ दिया, किंतु उसी शरीर में स्वयं भी प्रवेश कर गए। वृंदा को इस छल का आभास तक नहीं हुआ, और वह अपने पति रूपी भगवान के प्रति पतिव्रता भाव से व्यवहार करने लगीं। उसी क्षण उनका सतीत्व भंग हो गया, और उसी समय जालंधर युद्धभूमि में मारा गया।
जब वृंदा को इस छल का पता चला, तो उन्होंने क्रोध में आकर भगवान विष्णु को “ह्रदयहीन शिला” बनने का श्राप दे दिया। भगवान विष्णु ने अपने भक्त के श्राप को सहर्ष स्वीकार किया और शालिग्राम पत्थर बन गए। उनके पत्थर रूप धारण करते ही सृष्टि में असंतुलन फैल गया। तब समस्त देवी-देवताओं ने वृंदा से निवेदन किया कि वे भगवान विष्णु को श्रापमुक्त करें।
देवी वृंदा ने विष्णु जी को क्षमा कर श्राप मुक्त किया, किंतु स्वयं अग्नि में प्रवेश कर सती हो गईं। जिस स्थान पर उन्होंने आत्मदाह किया, वहीं तुलसी का पौधा उग आया। भगवान विष्णु ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा —
“हे वृंदा, तुम अपने सतीत्व के कारण मुझे लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय हो गई हो। अब तुम तुलसी के रूप में सदा मेरे साथ रहोगी।”
तब से हर वर्ष कार्तिक माह की देव-उठावनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह का पर्व मनाया जाता है। जो भी भक्त तुलसी और शालिग्राम का विवाह करता है, उसे इस लोक और परलोक दोनों में अपार यश की प्राप्ति होती है।
कहा जाता है कि दैत्यराज जालंधर की यह भूमि आज “जालंधर” नाम से प्रसिद्ध है। सती वृंदा का प्राचीन मंदिर आज भी मोहल्ला कोट किशनचंद में स्थित है। जनश्रुति है कि इस स्थान पर एक प्राचीन गुफा थी, जो हरिद्वार तक जाती थी। माना जाता है कि यदि कोई व्यक्ति सच्चे मन से 40 दिन तक सती वृंदा के मंदिर में पूजा करता है, तो उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं।
शास्त्रों में तुलसी के महत्त्व का वर्णन अनेक रूपों में मिलता है। जिस घर में तुलसी का पौधा होता है, वहाँ यमदूत असमय प्रवेश नहीं करते। मृत्यु के समय यदि किसी व्यक्ति के मुख में मंजरी रहित तुलसी दल और गंगाजल रखा जाए, तो वह पापमुक्त होकर सीधे वैकुंठ धाम को प्राप्त होता है। इसके अलावा, जो मनुष्य तुलसी और आँवले की छाया में अपने पितरों का श्राद्ध करते हैं, उनके पितर मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।
इस प्रकार वृंदा और तुलसी की कथा केवल भक्ति और सतीत्व की नहीं, बल्कि ईश्वर और प्रकृति के अटूट संबंध की प्रतीक है — जहाँ श्रद्धा, आस्था और प्रेम मिलकर सृष्टि को पवित्र बनाते हैं।
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एक प्राचीन कथा के अनुसार, तुलसी माता का हृदय भगवान गणेश के प्रति गहरे प्रेम से भरा हुआ था। वे उनसे विवाह करना चाहती थीं। एक दिन माता तुलसी ने निश्चय किया कि अब वे अपने मन की बात स्वयं बप्पा से कहेंगी। वह पूरे श्रद्धा और नम्रता के साथ भगवान गणेश के पास पहुँचीं और अपने हृदय की भावना व्यक्त करते हुए उनसे विवाह का प्रस्ताव रखा।
किन्तु भगवान गणेश ने माता तुलसी के इस प्रस्ताव को शांत भाव से अस्वीकार कर दिया। इस अस्वीकृति से माता तुलसी का हृदय टूट गया। उन्हें गहरा अपमान महसूस हुआ और दुख में उनका मन क्रोध से भर गया। उस क्षण उन्होंने भगवान गणेश को श्राप दे दिया — “हे गणेश, तुम्हारा विवाह दो बार होगा।”
माता के इस श्राप के प्रभाव से ही बाद में भगवान गणेश का विवाह रिद्धि और सिद्धि नामक दो दिव्य बहनों से हुआ। श्राप देने के बाद भी तुलसी माता का हृदय शांत नहीं हुआ। भगवान गणेश को जब इस घटना का ज्ञान हुआ, तो वे भी क्रोधित हो उठे और उन्होंने भी माता तुलसी को श्राप दिया — “हे तुलसी, तुम्हारा विवाह एक राक्षस से होगा।”
गणेश जी के इस श्राप के परिणामस्वरूप तुलसी माता का विवाह असुर कुल में उत्पन्न पराक्रमी दैत्यराज जालंधर से हुआ। यहीं से तुलसी और जालंधर की कथा की वह लंबी श्रृंखला आरंभ होती है, जो बाद में तुलसी विवाह के रूप में प्रचलित हुई।
समय बीतने के साथ तुलसी माता को अपनी भूल का गहरा पश्चाताप हुआ। वे भगवान गणेश के पास पहुँचीं और हाथ जोड़कर क्षमा याचना की। उनके हृदय की सच्चाई देखकर गणेश जी का क्रोध शांत हो गया। उन्होंने माता तुलसी को आशीर्वाद देते हुए कहा —
“हे तुलसी, भविष्य में तुम एक दिव्य पौधे के रूप में इस पृथ्वी पर पूजी जाओगी। तुम्हारे बिना कोई भी पूजा पूर्ण नहीं मानी जाएगी, परंतु मेरी पूजा में तुम्हारा उपयोग नहीं होगा।”
इसी कारण आज भी गणेश पूजन में तुलसी पत्र अर्पित नहीं किया जाता। वहीं, तुलसी पौधा संसार में पवित्रता, भक्ति और सतीत्व का प्रतीक माना जाता है।
इस प्रकार यह कथा न केवल प्रेम और त्याग की कथा है, बल्कि यह दर्शाती है कि भगवान भी कर्म और वचन के सिद्धांतों के बंधन में बंधे हैं। तुलसी माता का यह रूप आज भी हर घर में श्रद्धा और सम्मान के साथ पूजित है — जो भक्त के हृदय में प्रेम, शुद्धता और भक्ति की भावना जागृत करती हैं।
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