चंद्रमा, चांद, चंद्र, सुधाकर, सुधांशु जैसे अनेक नामों से हम एक ऐसे ग्रह के बारे में जानते हैं जो हमें सूर्य के बाद सबसे करीब दिखाई देता है। सबसे चमकीला दिखाई देता है। भले ही वह रोशनी लेता सूर्य से हो लेकिन अपनी छाती पर सूरज की गर्मी को सहन कर हम तक शीतल करके उस रोशनी को पंहुचाता है और हमारी रातों को दुधिया चांदनी से रोशन करता है। ज्योतिष में तो चंद्रमा का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है और हो भी क्यों न। दिन हो या रात, महिना हो या साल सब लगभग चंद्रमा पर ही तो निर्भर हैं। यहां तक जातक की कुंडली भी चंद्रमा की दशा के अनुसार ही बनती है। जिस भाव में चंद्रमा होता है उसी के अनुसार जातक की चंद्र राशि बनती है। चंद्रमा को मन का कारक भी माना जाता है। प्रतिपदा से लेकर अमावस्या पूर्णिमा सब तिथियां चंद्रमा पर निर्भर करती हैं। चंद्रमा की चढ़ती और उतरती कलाओं से ही तिथियों का मास के कृष्ण और शुक्ल पक्षों का निर्धारण होता है। तो आइये जानते हैं इतने महत्वपूर्ण ग्रह चंद्रमा की कहानी क्या है? हमारे पौराणिक ग्रंथ इस बारे में क्या कहते हैं।
विभिन्न पुराणों में चंद्रमा के जन्म की कथा भी भिन्न-भिन्न मिलती है। अग्नि पुराण की कथा के अनुसार भगवान ब्रह्मा ने जब सृष्टि की रचना करने का विचार किया तो सबसे पहले उन्होंने मानस पुत्रों की रचना की। इन्हीं मानस पुत्रों में एक थे ऋषि अत्रि। अत्रि का विवाह हुआ महर्षि कर्दम की कन्या अनुसुइया से। देवी अनुसुईया के तीन पुत्र हुए जो दुर्वासा, दत्तात्रेय एवं सोम नाम से जाने गये। मान्यता है कि सोम चंद्र का ही एक नाम है।
एक अन्य पुराण कथा अनुसार ब्रह्मा जी ने सृष्टि विस्तार का काम अपने मानस पुत्र अत्रि को सौंपा। इन्होंने इसके लिये अनुत्तर नामक तप शुरु कर दिया। तप करते समय एक दिन इनके नेत्रों से जल की कुछ बहुत ही तेजोमय बूंदे टपकी समस्त दिशाओं ने स्त्री रूप धारण कर पुत्र प्राप्ति की कामना हेतु इन प्रकाशमयी बूंदों को अपने गर्भ में धारण कर लिया लेकिन अधिक समय तक दिशाएं इस गर्भ को धारण न कर सकीं और उसे त्याग दिया। फिर इस त्यागे हुए गर्भ को ब्रह्मा जी ने पुरुष रूप प्रदान किया जिसे चंद्रमा के नाम से ख्याति मिली। मान्यता है कि इन्हीं के तेज से पृथ्वी पर अनेक जीवन दायिनी औषधियों की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा जी ने इन्हें नक्षत्रों, वनस्पतियों, ब्राह्मण, तप आदि का स्वामीत्व सौंपा।
एक मान्यता यह भी है कि जब देवताओं और असुरों ने मिलकर क्षीरसागर का मंथन किया तो उस दौरान प्राप्त होने वाले 14 रत्नों में से एक चंद्रमा थे जिन्हें भगवान शिव ने अपने मस्तक पर धारण किया। हालांकि माना यह भी जाता है कि ग्रह के रूप में चंद्रमा की उपस्थिति मंथन से पहले भी थी। क्योंकि जब मंथन का मुहूर्त निकाला गया तो उस समय चंद्रमा और गुरू का शुभ योग बताया गया था। इस प्रकार मान्यता यह भी है कि चंद्रमा की विभिन्न कलाओं का जन्म अलग-अलग समय में हुआ।
ब्रह्मा जी ने चंद्रमा को नक्षत्रों का स्वामी नियुक्त किया था लेकिन पौराणिक ग्रंथों में यह मान्यता भी मिलती है कि नक्षत्र जो कि 27 माने जाते हैं वे सभी प्रजापति दक्ष की कन्याएं थी जिनका विवाह चंद्रमा से हुआ इस कारण इन्हीं नक्षत्रों के भोग से एक माह संपन्न माना जाता है। सभी नक्षत्रों में रोहिणी से चंद्रमा का विशेष लगाव बताया जाता है। चंद्रमा का यह पक्षपात पूर्ण व्यवहार अन्य पत्नियों को पसंद नहीं था उन्होंने इसकी शिकायत अपने पिता प्रजापति दक्ष से की। उन्होंने चंद्रमा को क्षय होने का शाप दे दिया। इससे तमाम वनस्पतियों पर भी संकट मंडराने लगा। तत्पश्चात स्वयं भगवान विष्णु ने बीच बचाव करते हुए समुद्र मंथन के दौरान चंद्रमा का उद्धार किया जिससे क्षय की यह अवधि पाक्षिक हुई। इसी कारण चंद्रमा हर पंद्रह दिन बाद घटता-बढ़ता रहता है।
चंद्रमा के गुरु देव गुरु बृहस्पति माने जाते हैं जब चंद्रमा उनके पास शिक्षा ग्रहण कर रहे थे तो उसी दौरान बृहस्पति की पत्नी तारा और चंद्रमा एक दूसरे के करीब आये। दोनों के संयोग से बुध की उत्पत्ति हुई। बृहस्पति और चंद्रमा आमने-सामने हो गये बाद में ब्रह्मा जी के हस्तक्षेप से मामला शांत हुआ और तारा को पुन: बृहस्पति को सौंपा गया। बृहस्पति ने बुध को अपने पुत्र रूप में स्वीकार किया। क्षत्रियों के चंद्रवंश की शुरुआत बुध से ही मानी जाती है। हालांकि कुछ कथाओं में यह भी बताया जाता है कि चंद्रमा ने तारा का अपहरण किया था।
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