शुक्र ग्रह जिसे भौर का तारा भी कहा जाता है। ज्योतिषशास्त्र में भी शुक्र को सौंदर्य का देवता माना जाता है। भाग्य का कारक भी शुक्र माना जाता है। प्रेम का कारक भी शुक्र को कहा जाता है। पौराणिक ग्रंथों में शुक्र को भृगु ऋषि का पुत्र बताया गया है जिनका नाम कवि और भार्गव बतलाया जाता है जिन्होंने अपने तपोबल से दैत्य गुरु की पदवी प्राप्त की। आइये जानते हैं दैत्य गुरु शुक्राचार्य के शुक्र बनने की कहानी।
पौराणिक ग्रंथों में शुक्र की जो कथा मिलती है उनके अनुसार भृगु ऋषि जो कि ब्रह्मा जी के मानस पुत्रों में से एक थे उनका विवाह प्रजापति दक्ष की कन्या ख्याति से हुआ। भृगु और ख्याति से धाता, विधाता नामक दो पुत्र हुए व एक कन्या ने भी इनके यहां जन्म लिया जिसका नाम था श्री। वहीं भागवत पुराण में भृगु ऋषि के यहां एक पुत्र और बताये गये हैं जिनका नाम था कवि। यही कवि आगे चलकर शुक्राचार्य के नाम से प्रसिद्ध होते हैं।
हुआ यूं कि एक और जहां भृगु ऋषि के यहां कवि यानि शुक्र पैदा हुए तो वहीं महर्षि अंगिरा के यहां जन्म लेने वाले बालक थे जीव जो आगे चलकर गुरु यानि बृहस्पति के रूप में ख्यात हुए। ऋषि भृगु चाहते थे कि महर्षि अंगिरा अपने पुत्र जीव के साथ-साथ उनके पुत्र कवि को भी शिक्षा प्रदान करें।
अब कवि महर्षि अंगिरा के पास रहने लगे और जीव के साथ-साथ अंगिरा उन्हें भी शिक्षित करने लगे लेकिन जैसे-जैसे दोनों बड़े होते जा रहे थे महर्षि का ध्यान अपने पुत्र पर ज्यादा केंद्रित हो रहा था और कवि की वे उपेक्षा करने लगे। इस महसूस करते हुए कवि ने उनसे इजाजत ली और आगे की शिक्षा लेने के लिये गौतम ऋषि की शरण में जा पंहुचे। गौतम ऋषि ने उनकी व्यथा को सुनकर उन्हें भगवान भोलेनाथ की शरण लेने की सलाह दी। अब कवि ने गोदावरी के तट पर भोलेनाथ की तपस्या आरंभ कर दी। उनके कठोर तप को देखते हुए भगवान शिवशंकर प्रसन्न हुए और महादेव ने उन्हें ऐसी दुर्लभ मृतसंजीवनी विद्या दी जो कि देवताओं को भी नसीब नहीं होती थी। इस विद्या के पश्चात वह मृतक शरीर में भी प्राण डालने में सक्षम हो गये थे। इसके साथ ही भगवान शिव ने उन्हें ग्रहत्व प्रदान किया और वरदान दिया कि तुम्हारा तेज सभी नक्षत्रों से अधिक होगा। परिणय सूत्र में बंधने जैसे मांगलिक कार्य भी तुम्हारे उदित होने पर ही आरंभ होंगे। अपनी विद्या व वरदान से भृगु के पुत्र कवि ने दैत्यगुरु का पद प्राप्त किया। यहां तक उन्हें सिर्फ कवि और भृगु पुत्र होने के कारण भार्गव नाम से दैत्यगुरु के रूप में जाना जाता था।
दैत्यगुरु भार्गव के शुक्राचार्य बनने की कहानी वामन पुराण में मिलती है। इसके अनुसार अंधकासुर नाम का एक शक्तिशाली दैत्य था। उसने देवताओं की नाक में दम कर दिया था। देवता उसके जिस भी प्रमुख सेनानी को मारते शुक्राचार्य अपनी संजीवनी विद्या से उन्हें पुन: जीवित कर देते। ऐसे में सभी ने महादेव की शरण ली और अपनी व्यथा उनके सामने प्रकट की। अब महादेव ने शुक्राचार्य को जीवित निगल कर अपने उदर में धारण कर लिया। शुक्राचार्य भी भगवान शिव के उदर में ही तपस्या करने लगे। इस पर प्रसन्न हो शिव ने उन्हें कह दिया कि वे बाहर निकल आयें। उधर दैत्यगुरु की अनुपस्थिति में अंधकासुर पराजित हो गया। भार्गव लंबे समय तक शिव के उदर में भटकते रहे लेकिन उन्हें निकलने का कोई मार्ग नहीं मिला तब फिर से उन्होंने तप आरंभ कर दिया इस पर भोलेनाथ और भी प्रसन्न हुए और उन्हें कहा कि उनके पेट में रहने के कारण वे उनके पुत्र के समान हो गये हैं शुक्राणु के रूप में शिव ने उन्हें विसृजित कर दिया। इसके पश्चात कवि व भार्गव के साथ उन्हें शुक्राचार्य के नाम से जाना जाने लगा। शिव से शुक्र रूप में निकलने के कारण ज्योतिषशास्त्र में शुक्राणु यानि कि संतान उत्पति के लिये सामर्थ्य के कारक भी शुक्र माने जाते हैं।
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