हिंदू धर्म के संस्कारों पर हमने लेखों की श्रृंखला शुरु की है जिसमें अभी तक हमने पहले और दूसरे संस्कार यानि गर्भाधान और पुंसवन के बारे में जानकारी दी है इस लेख में हम तीसरे संस्कार की बात करेंगें। यह संस्कार कहलाता है सीमन्तोन्नयन का। इस संस्कार को पुंसवन संस्कार का ही विस्तार माना जाता है। पुंसवन संस्कार जहां गर्भाधारण के तीसरे महीने में किये जाने का विधान है वहीं सीमन्तोन्नयन संस्कार चौथे, छठे या आठवें माह में किया जाता है। अधिकतर विद्वान इस संस्कार को आठवें महीने में किये जाने के पक्ष में हैं। आइये जानते हैं सीमन्तोन्नयन संस्कार के बारे में।
जैसा कि नाम से ही जाहिर होता है कि यह सीमन्तोन्नयन सीमन्त और उन्नयन से मिलकर बना है। सीमन्त बालों को कहा जाता है और उन्नयन का अर्थ होता है ऊपर उठाना। मान्यता है कि जब स्त्री गर्भधारण करती है तो समय के साथ-साथ उसके अंदर बहुत सारे परिवर्तन आते हैं। सीमन्तोन्नयन संस्कार आठवें महीने में किया जाता है। इस समय स्त्री की पीड़ा और उसके स्वभाव में परिवर्तन बहुत बढ़ जाते हैं ऐसे में उसे मानसिक रूप से तैयार करने की जरूरत होती है। इस संस्कार के बहाने पति पत्नी के केश संवारता है ताकि उसे मानसिक शक्ति प्राप्त हो। इस संस्कार की यह मान्यता भी काफी प्रबल है कि इससे गर्भ सुरक्षित रहता है। माना जाता है कि चौथे, छठे या आठवें माह में गर्भपात हो जाये तो गर्भ के जीवित रहने की संभावनाएं नहीं होती बल्कि माता के जीवन को भी कई बार संकट हो जाता है। इसलिये यह संस्कार छठे या आठवें माह में अवश्य करने की सलाह दी जाती है। इस संस्कार का एक महत्व यह भी माना जाता है कि इससे शिशु का भी मानसिक विकास होता है। क्योंकि आठवें माह में वह माता को सुनने व समझने लगता है। इसलिये मां का मानसिक स्वास्थ्य यदि बेहतर होगा तो शिशु का भी बेहतर बना रहता है।
शास्त्र सम्मत मान्यता है कि गूलर की टहनी से पति पत्नी की मांग निकाले व साथ में ॐ भूर्विनयामि, ॐ भूर्विनयामि, ॐ भूर्विनयामि का जाप करें। इसके पश्चात पति इस मंत्र का उच्चारण करे-
येनादिते: सीमानं नयाति प्रजापतिर्महते सौभगाय।
तेनाहमस्यौ सीमानं नयामि प्रजामस्यै जरदष्टिं कृणोमि।।
इसका अर्थ है कि देवताओं की माता अदिति का सीमंतोन्नयन जिस प्रकार उनके पति प्रजापति ने किया था उसी प्रकार अपनी संतान के जरावस्था के पश्चात तक दीर्घजीवी होने की कामना करते हुए अपनी गर्भिणी पत्नी का सीमंतोन्नयन संस्कार करता हूं। इस विधि को पूरा करने के पश्चात गर्भिणी स्त्री को किसी वृद्धा ब्राह्मणी या फिर परिवार या आस-पड़ोस में किसी बुजूर्ग महिला का आशीर्वाद लेना चाहिये। आशीर्वाद के पश्चात गर्भवती महिला को खिचड़ी में अच्छे से घी मिलाकर खिलाये जाने का विधान भी है। इस बारे में एक उल्लेख भी शास्त्रों में मिलता है-
किं पश्यास्सीत्युक्तवा प्रजामिति वाचयेत् तं सा स्वयं।
भुज्जीत वीरसूर्जीवपत्नीति ब्राह्मण्यों मंगलाभिर्वाग्भि पासीरन्।।
इसका अर्थ है कि खिचड़ी खिलाते समय स्त्री से सवाल किया गया कि क्या देखती हो तो वह जवाब देते हुए कहती है कि संतान को देखती हूं इसके पश्चात वह खिचड़ी का सेवन करती है। संस्कार में उपस्थित स्त्रियां भी फिर आशीर्वाद देती हैं कि तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हें सुंदर स्वस्थ संतान की प्राप्ति हो व तुम सौभाग्यवती बनी रहो।
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