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सारे संकटों को दूर करने के लिए माघ मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को सकट चौथ(sakat chauth) का व्रत किया जाता है। यह व्रत महिलाएं अपनी संतान की दीर्घायु और सफलता के लिए करती हैं।
पौराणिक कथानुसार, सतयुग में महाराजा हरिश्चंद्र के राज्य में एक ऋषिशर्मा नामक तपस्वी ब्राह्मण रहता था। पुत्र के जन्म के बाद ब्राह्मण की मृत्यु हो गई। पुत्र का लालन-पालन उसकी पत्नी ने किया और विधवा ब्राह्मणी भिक्षा मांगकर अपने घर को चलती थी। उसी नगर में ही एक कुम्हार रहता था। वह मिट्टी के बर्तन बनाता था लेकिन उसके बर्तन हमेशा कच्चे रह जाते थे। जिसकी वजह से कुम्हार परेशान रहता था एक दिन उसने एक तांत्रिक से पूछा कि उसके बर्तन पकते क्यों नहीं हैं? इसका कोई समाधान बताएं। इस पर तांत्रिक ने उसे किसी बच्चे की बलि देने को कहा। संकट चतुर्थी के दिन विधवा ब्राह्मणी ने अपने पुत्र के लिए सकट चौथ का व्रत ऱखा। इसी बीच उसका पुत्र गणेश जी की मूर्ति को गले में डालकर खेलने चला गया और कुम्हार ने उसे पकड़ लिया और उसे मिट्टी पकाने वाले आंवा में डाल दिया। इधर उसकी माता अपने पुत्र को ढूंढने लगी, पुत्र के ना मिलने पर विधवा ब्रह्मणी गणेश जी से प्रार्थना करने लगी। रात बीत जाने के बाद सुबह जब कुम्हार पके हुए बर्तनों को देखने आंवा के पास गया तो उसने देखा कि उसमें जांघभर पानी जमा हुआ था और उसके अंदर एक बालक बैठकर खेल रहा था। इस घटना से कुम्हार डर गया और उसने राजदरबार में जाकर सारी आपबीती सुनाई।
तब राजा ने अपने मंत्रियों को भेजा ताकि वह पता लगा सके कि यह पुत्र किसका और कहां से आया है? जब विधवा ब्राह्मणी को पता चला तो वह अपने पुत्र को लेने तुरंत पहुंच गई। राजा ने वृद्धा से पूछा कि ऐसा चमत्कार हुआ कैसे? तो वृद्धा ने बताया कि उसने सकट चौथ का व्रत रखा था और गणेश जी की पूजा-अर्चना की थी। इस व्रत के प्रभाव से उसके पुत्र के पुन: जीवनदान मिला है। तब से महिलाएं संतान और परिवार के सौभाग्य के लिए सकट चौथ का व्रत करने लगीं।