गणगौर मुख्यत: राजस्थान में मनाया जाने वाला पर्व है। जिसे हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले चैत्र शुक्ल तृतीया को मनाते हैं। यह पर्व विशेष रूप से महिलाएं मनाती हैं। इसमें गुप्त रूप से यानि पति को बताये बिना ही विवाहित स्त्रियां उपवास रखती हैं। अविवाहित कन्याएं भी मनोवांछित वर पाने के लिये गणगौर पूजा करती हैं। हालांकि गणगौर का पर्व चैत्र मास की कृष्ण तृतीया से ही आरंभ हो जाता है लेकिन इस पर्व की मुख्य पूजा चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को ही की जाती है। आइये जानते हैं क्यों होती है गणगौर पूजा? क्या है मान्यता और क्या है पौराणिक कथा?
एक बार की बात है कि भगवान शिव शंकर और माता पार्वती भ्रमण के लिये निकल पड़े, उनके साथ में नारद मुनि भी थे। चलते-चलते एक गांव में पंहुच गये उनके आने की खबर पाकर सभी उनकी आवभगत की तैयारियों में जुट गये। कुलीन घरों से स्वादिष्ट भोजन पकने की खुशबू गांव से आने लगी। लेकिन कुलीन स्त्रियां स्वादिष्ट भोजन लेकर पंहुचती उससे पहले ही गरीब परिवारों की महिलाएं अपने श्रद्धा सुमन लेकर अर्पित करने पंहुच गयी। माता पार्वती ने उनकी श्रद्धा व भक्ति को देखते हुए सुहाग रस उन पर छिड़क दिया। जब उच्च घरों स्त्रियां तरह-तरह के मिष्ठान, पकवान लेकर हाज़िर हुई तो माता के पास उन्हें देने के लिये कुछ नहीं बचा तब भगवान शंकर ने पार्वती जी कहा, अपना सारा आशीर्वाद तो उन गरीब स्त्रियों को दे दिया अब इन्हें आप क्या देंगी?
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माता ने कहा इनमें से जो भी सच्ची श्रद्धा लेकर यहां आयी है उस पर ही इस विशेष सुहागरस के छींटे पड़ेंगे और वह सौभाग्यशालिनी होगी। तब माता पार्वती ने अपने रक्त के छींटे बिखेरे जो उचित पात्रों पर पड़े और वे धन्य हो गई। लोभ-लालच और अपने ऐश्वर्य का प्रदर्शन करने पंहुची महिलाओं को निराश लौटना पड़ा। मान्यता है कि यह दिन चैत्र मास की शुक्ल तृतीया का दिन था तब से लेकर आज तक स्त्रियां इस दिन गण यानि की भगवान शिव और गौर यानि की माता पार्वती की पूजा करती हैं।
इसी कहानी में आगे का वर्णन उपरोक्त प्रश्न का उत्तर देता है। हुआ यूं कि जब माता पार्वती से आशीर्वाद पाकर महिलाएं घरों को लौट गई तो माता पार्वती ने भी भगवान शिव से इज़ाजत लेकर पास ही स्थित एक नदी के तट पर स्नान किया और बालू से महादेव की मूर्ति स्थापित कर उनका पूजन किया। पूजा के पश्चात बालू के पकवान बनाकर ही भगवान शिव को भोग लगाया। तत्पश्चात प्रदक्षिणा कर तट की मिट्टी का टीका मस्तक पर लगाया और बालू के दो कणों को प्रसाद रूप में ग्रहण कर भगवान शिव के पास वापस लौट आईं। अब शिव तो सर्वज्ञ हैं जानते तो वे सब थे पर माता पार्वती को छेड़ने के लिये पूछ लिया कि बहुत देर लगा दी आने में? माता ने जवाब देते हुए कहा कि मायके वाले मिल गये थे उन्हीं के यहां इतनी देर लग गई। तब और छेड़ते हुए कहा कि आपके पास तो कुछ था भी नहीं स्नान के पश्चात प्रसाद में क्या लिया? माता ने कहा कि भाई व भावज ने दूध-भात बना रखा था उसे ग्रहण कर सीधी आपके पास आई हूं। अब भगवान शिव ने कहा कि चलो फिर उन्हीं के यहां चलते हैं आपका तो हो गया लेकिन मेरा भी मन कर गया है कि आपके भाई भावज के यहां बने दूध-भात का स्वाद चख सकूं।
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माता ने मन ही मन भगवान शिव को याद किया और अपनी लाज रखने की कही। नारद सहित तीनों नदी तट की तरफ चल दिये। वहां पहुंच क्या देखते हैं कि एक आलीशान महल बना हुआ है। वहां उनकी बड़ी आवभगत होती है। इसके बाद जब वहां से प्रस्थान किया तो कुछ दूर जाकर ही भगवान शिव बोले कि मैं अपनी माला आपके मायके में भूल आया हूं। माता कहने लगी ठीक है मैं अभी ले आती हूं तब भगवान शिव बोले आप रहने दें नारद जी ले आयेंगें। अब नारद जी चल दिये उस स्थान पर पंहुचे तो हैरान रह गये चारों और बीयाबान दिखाई दे महल का नामों निशान तक नहीं फिर एक पेड़ पर उन्हें भगवान शिव की रूद्राक्ष की माला दिखाई दी उसे लेकर वे लौट आये आकर प्रभु को यह विचित्र वर्णन कह सुनाया तब भगवान शिव ने बताया कि यह सारी पार्वती की माया थी। वे अपने पूजन को गुप्त रखना चाहती थी इसलिये उन्होंने झूठ बोला और अपने सत के बल पर यह माया रच भी दी। यही दिखाने के लिये मैनें तुम्हें वापस भेजा था। तब नारद ने माता के सामने नतमस्तक होकर कहा कि हे मां आप सर्वश्रेष्ठ हैं, सौभाग्यवती आदिशक्ति हैं। गुप्त रूप से की गई पूजा ही अधिक शक्तिशाली एवं सार्थक होती है। हे मां मेरा आशीर्वचन है कि जो स्त्रियां इसी तरह गुप्त रूप से पूजन कर मंगल कामना करेंगी महादेव की कृपा से उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होंगी।
तभी से लेकर गणगौर के इस गोपनीय पूजन की परंपरा चली आ रही है।
गणगौर की कहानी तो आप जान ही चुकें हैं और यह भी कि सबसे पहले तो मन में सच्ची श्रद्धा होनी चाहिये। इस पर्व के ईष्ट महादेव व पार्वती हैं। जो पूजा व उपवास करने पर सौभाग्य का वरदान देते हैं। सुहागिनें इस दिन दोपहर तक व्रत रखती हैं व कथा सुनती हैं, नाचते गाते खुशी से पूजा-पाठ कर इस पर्व को मनाती हैं।
इस पर्व के लिये चैत्र कृष्ण पक्ष की एकादशी यानि की पापमोचिनी एकादशी को प्रात: स्नानादि कर गीले वस्त्रों में ही रहते हुए घर में किसी पवित्र स्थान पर लकड़ी की टोकरी में जवारे को बोयें। एकादशी से लेकर चैत्र शुक्ल तृतीया तक व्रती एक समय भोजन करे। जवारों की भगवान शिव यानि ईसर एवं माता पार्वती यानि गौर के रूप में पूजा करनी चाहिये। जब तक इनका विसृजन नहीं होता तब तक प्रतिदिन विधिवत पूजा करनी चाहिये। सुहाग की निशानियों का पूजन कर गौरी जी अर्पित करें। कथा श्रवण के पश्चात माता पार्वती यानि गौरी जी पर अर्पित किये सिंदूर से अपनी मांग भरनी चाहिये। अविवाहित कन्यें गौरी जी को प्रणाम कर आशीर्वाद प्राप्त करें। चैत्र शुक्ल द्वितीया को किसी पवित्र तीर्थ स्थल या नजदीकी सरोवर में गौरीजी को स्नान करवायें। तृतीया को उन्हें सजा-धजा कर पालने में बैठाकर नाचते गाते शोभायात्रा निकालते हुए विसर्जित करें। उपवास भी इसके पश्चात ही छोड़ा जाता है।
मान्यता है कि गौरीजी स्थापना जहां होती है वह उनका मायका होता है और जहां विसर्जन किया जाता है वह ससुराल।
गणगौर के पावन पर्व पर आप सबको माता पार्वती व महादेव की कृपा मिले। गणगौर पर्व की सभी पाठकों को एस्ट्रोयोगी की ओर से हार्दिक शुभकामनाएं। अपनी राशिनुसार गणगौर पूजा की विधि व ज्योतिषीय उपाय जानने के लिये आप देश के जाने में ज्योतिषाचार्यों से परामर्श कर सकते हैं। ज्योतिषियों से बात करने के लिये यहां क्लिक करें।
गणगौर पूजा चैत्र मास की शुक्ल तृतीया को की जाती है। अंग्रेजी कलैंडर के अनुसार इस वर्ष यह तिथि 15 अप्रैल को है।
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