Jitiya 2022: हिंदू धर्म में व्रत व त्यौहारों को मनाने का विशेष महत्व एक विशेष उद्देश्य होता है। कुछ व्रत त्यौहार सामाजिक कल्याण से जुड़े होते हैं तो कुछ व्यक्तिगत व पारिवारिक हितों से। आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में जहां पितर शांति के लिये श्राद्ध पक्ष मनाया जाता है तो वहीं शुक्ल पक्ष के आरंभ होते ही नवरात्र का उत्सव शुरु होता है जिसका समापन शुक्ल दशमी को दुर्गा विसर्जन, दशहरे आदि के रूप में होता है। इस लिहाज से वैसे तो आश्विन मास की प्रत्येक तिथि बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है लेकिन जब संतान की सुरक्षा, सेहत और दीर्घायु की कामना बात हो जो कि हर मां की इच्छा होती है तो आश्विन मास की कृष्ण अष्टमी तिथि बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। इसका कारण है इस दिन संतान के सुखी, स्वस्थ और दीर्घायु जीवन की कामना पूरी करने हेतु रखा जाने वाला व्रत। इस व्रत को कहते हैं जीवित्पुत्रिका व्रत(JIvitputrika Vrat 2022)। आइये जानते हैं क्या है जीवित्पुत्रिका व्रत का महत्व? क्या है इसकी व्रत कथा व पूजा विधि?
यह व्रत वैसे तो आश्विन मास की अष्टमी को रखा जाता है लेकिन इसका उत्सव तीन दिनों का होता है। सप्तमी का दिन नहाई खाय के रूप में मनाया जाता है तो अष्टमी को निर्जला उपवास रखना होता है। व्रत का पारण नवमी के दिन किया जाता है। वहीं अष्टमी को सांय प्रदोषकाल में संतानशुदा स्त्रियां जीमूतवाहन की पूजा करती हैं और व्रत कथा का श्रवण करती हैं। श्रद्धा व सामर्थ्य अनुसार दान-दक्षिणा भी दी जाती है।
जिवित पुत्रिका व्रत 18 सितंबर, 2022, रविवार को
अष्टमी तिथि आरम्भ - 17 सितंबर 2022 को दोपहर 02:14 से
अष्टमी तिथि समाप्त - 18 सितंबर, 2022 को सायं 04:32 तक
जीवित्पुत्रिका व्रत (Jivitputrika Vrat) आश्विन मास की कृष्ण अष्टमी को किया जाने वाला व्रत है। मान्यता है कि माताएं अपनी संतान के लंबे व स्वस्थ जीवन के लिये इस व्रत को करती हैं। कुछ क्षेत्रों में यह व्रत जिउतिया व्रत भी कहा जाता है।
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इस व्रत का संबंध महाभारत से माना जाता है। कथा (Jivitputrika Vrat Katha) के अनुसार अपने पिता की हत्या का प्रतिशोध लेने के लिये अश्वत्थामा पांडवों के वंश का नाश करने के अवसर ढंढता है। एक दिन मौका पाकर उसने पांडव समझते हुए द्रौपदी के पांच पुत्रों की हत्या कर दी। उसके इस कृत्य की बदौलत अर्जुन ने अश्वत्थामा को बंदी बना लिया और उससे उसकी दिव्य मणि छीन ली। लेकिन इसके पश्चात अश्वत्थामा का क्रोध और बढ़ गया और उसने उत्तरा की गर्भस्थ संतान पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया जिसे रोक पाना असंभव था। लेकिन उस संतान का जन्म लेना भी अत्यावश्यक था। तब भगवान श्री कृष्ण ने अपने समस्त पुण्यों का फल उत्तरा को समर्पित किया जिससे गर्भ में मृत संतान का जीवन मिला। मृत्योपरांत जीवनदान मिलने के कारण ही इस संतान को जीवित्पुत्रिका(Jivitputrika) कहा गया। यह संतान कोई और नहीं बल्कि राजा परीक्षित ही थे। उसी समय से आश्विन अष्टमी को जीवित्पुत्रिका व्रत के रूप में मनाया जाता है।
जीवित्पुत्रिका व्रत को जिउतिया अथवा जितिया (Jitiya Vrat Katha) भी कहा जाता है इसकी भी एक कथा मिलती है। बहुत समय पहले की बात है कि गंधर्वों के एक राजकुमार हुआ करते थे, नाम था जीमूतवाहन। बहुत ही पवित्र आत्मा, दयालु व हमेशा परोपकार में लगे रहने वाले जीमूतवाहन को राज पाट से बिल्कुल भी लगाव न था लेकिन पिता कब तक संभालते। वानप्रस्थ लेने के पश्चात वे सबकुछ जीमूतवाहन को सौंपकर चलने लगे। लेकिन जीमूतवाहन ने तुरंत अपनी तमाम जिम्मेदारियां अपने भाइयों को सौंपते हुए स्वयं वन में रहकर पिता की सेवा करने का मन बना लिया। अब एक दिन वन में भ्रमण करते-करते जीमूतवाहन काफी दूर निकल आया। उसने देखा कि एक वृद्धा काफी विलाप कर रही है। जीमूतवाहन से कहां दूसरों का दुख देखा जाता था उसने सारी बात पता लगाई तो पता चला कि वह एक नागवंशी स्त्री है और पक्षीराज गरुड़ को बलि देने के लिये आज उसके इकलौते पुत्र की बारी है। जीमूतवाहन ने उसे धीरज बंधाया और कहा कि उसके पुत्र की जगह पर वह स्वयं पक्षीराज का भोजन बनेगा। अब जिस वस्त्र में उस स्त्री का बालक लिपटा था उसमें जीमूतवाहन लिपट गया। जैसे ही समय हुआ पक्षीराज गरुड़ उसे ले उड़ा। जब उड़ते उड़ते काफी दूर आ चुके तो पक्षीराज को हैरानी हुई कि आज मेरा यह भोजन चीख चिल्ला क्यों नहीं रहा है। इसे जरा भी मृत्यु का भय नहीं है। अपने ठिकाने पर पंहुचने के पश्चात उसने जीमूतवाहन का परिचय लिया। जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया। पक्षीराज जीमूतवाहन की दयालुता व साहस से प्रसन्न हुए व उसे जीवन दान देते हुए भविष्य में भी बलि न लेने का वचन दिया।
मान्यता है कि यह सारा वाकया आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था इसी कारण तभी से इस दिन को जिउतिया अथवा जितिया व्रत (Jitiya Vrat) के रूप में मनाया जाता है ताकि संतानें सुरक्षित रह सकें।
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✍️ By- टीम एस्ट्रोयोगी