मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम के बारे में तो सभी जानते हैं। यह भी वे स्वयं भगवान विष्णु के अवतार थे। श्री राम भगवान शिव को अपना आराध्य देव भी मानते थे। लेकिन क्या आप जानते हैं कि रामायण काल यानि कि त्रेता युग में एक समय ऐसा भी आया कि भगवान शिव शंकर और भगवान श्री राम युद्ध के मैदान में एक दूसरे के आमने सामने हो गये थे और दोनों में भयंकर युद्ध हुआ था। कैसा दृश्य रहा होगा जब सृष्टि के पालनकर्ता विष्णु और महाकाल माने जाने वाले भोलेनाथ जब युद्धरत थे? तो आइये जानते हैं क्यों व कैसे हुआ भगवान शिव व भगवान श्री राम के बीच युद्ध।
शिवजी व श्री राम युद्ध की पौराणिक कथा
बात त्रेता युग में उस समय की है जब रावण को हराने के पश्चात अयोध्या वापसी कर श्री राम ने राज पाट संभाल लिया था और लोकलाज के भय से माता सीता को भगवान श्री राम ने त्याग दिया था। उसके कुछ वर्षों पश्चात अयोध्या में खुशहाली लाने हेतु अश्वमेध यज्ञ किया जाता है। यज्ञ का अश्व जहां जाता या तो वहां के राजा प्रजा सहित श्री राम के अधीन हो जाते या फिर युद्ध में पराजित होकर उन्हें ऐसा करना पड़ता क्योंकि किसी में भी पवनपुत्र हनुमान, श्री राम के भ्राता शत्रुघ्न व भरत को पराजित करने की हिम्मत नहीं थी। ऐसे में अश्व निरन्तर आगे बढ़ता जा रहा था और श्री राम का साम्राज्य भी बढ़ता जा रहा था। चलते चलते अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा देवपुर जा पंहुचा। देवपुर के राजा वीरमणि थे जो बहुत ही पुण्यात्मा और भगवान भोलेनाथ व श्री राम के परम भक्त थे। अपनी कड़ी तपस्या से उन्हें स्वयं भगवान शिव से अपने राज्य की रक्षा का वरदान मिला हुआ था। अश्व को देखकर वीरमणि के पुत्र रुक्मांगद ने अश्व को रोक लिया। जब अश्व का संदेश पढ़ा तो वह युद्ध की इज़ाजत के लिये अपने पिता वीरमणि के पास पंहुचा। अब वीरमणि भगवान राम के भक्त पहले तो अपने पुत्र को समझाने की कौशिश की लेकिन जब रुक्मांगद ने कहा कि वह युद्ध करने का वचन देकर आये हैं तो फिर पिछे हटने का सवाल ही नहीं था। उधर श्री राम की सेना में से भी हनुमान जो कि स्वयं भगवान शिव शंकर के ही अंश माने जाते हैं ने युद्ध रोकने का सुझाव दिया था और बातचीत से हल निकालने की प्रार्थना की थी उन्होंने शत्रुघ्न को समझाते हुए कहा था इस राज्य की रक्षा का जिम्मा स्वयं महाकाल का है इसलिये भगवान श्री राम के बिना यहां कोई चारा नहीं चलेगा। लेकिन उन्होंने पहले खुद ही इस स्थिति से निपटने का निर्णय लिया। अब युद्ध में श्री राम की सेना भारी पड़ रही थी, वीरमणि की सेना का मनोबल टूट रहा था। तब वीरमणि ने अपने रक्षक भगवान भोलेनाथ को याद किया तो उन्होंने अपने भक्त की पुकार सुनी और रक्षा के लिये नंदी, वीरभद्र सहित गण सेना को भेज दिया और देखते ही देखते मैदान में युद्ध का पासा ही पलट गया। भरत के पुत्र पुष्कल की मौत हो गई और भी लाखों सैनिक मारे गये। श्री राम की सेना संकट में थी तो हनुमान ने कहा कि मैं पहले ही कह रहा था अब भगवान श्री राम के बिना कोई चारा नहीं है अत: उन्हीं का स्मरण किया जाये। अब युद्ध के मैदान में स्वयं श्री राम अनुज लक्ष्मण सहित पधार चुके थे। एक बार फिर उनकी सेना भगवान शिव की गणसेना सहित वीरमणि की सेना पर भारी पड़ गई। अब शिव गणों ने भगवान शिव को याद किया तो स्वयं महाकाल युद्ध भूमि में आ पंहुचे। महाकाल को देखते ही श्री राम की अधिकतर सेना तो वैसे ही मूर्छित हो गई। भगवान श्री राम ने भी उनके सामने अपने हथियार डाल दिये और उनकी स्तुति करने लगे कि प्रभु जो कुछ हो रहा है वह आपके आशीर्वाद से ही हो रहा है। अब भगवान शिव तो जानते थे कि वे भी स्वयं विष्णु ही हैं। फिर उन्होंने श्री राम से कहा कि वे भी उनसे युद्ध के इच्छुक नहीं हैं लेकिन अपने भक्त वीरमणि की सुरक्षा के प्रति वचनबद्ध हैं अत: युद्ध से पिछे नहीं हट सकते और आप भी नि:संकोच होकर युद्ध करें।
सृष्टि के पालनकर्ता विष्णु और विनाशक महाकाल के बीच का यह युद्ध देखने के लिये ब्रह्मांड के सभी देवी देवता एकत्र हो गये। दोनों में बड़ा ही प्रलयकारी युद्ध होने लगा लेकिन महाकाल तो महाकाल हैं वे श्री राम के वार से संतुष्ट ही नहीं हो रहे थे। तब श्री राम ने भगवान शिवजी द्वारा भेंट किया पाशुपास्त्र निकाला और कहा कि हे प्रभु यह आपका ही वरदान है कि इस अस्त्र से कोई पराजित नहीं होगा इसलिये आपकी इच्छा से ही मैं इसे आप पर चला रहा हूं तब जाकर महाकाल श्री राम के पाशुपास्त्र से संतुष्ट हुए और वरदान मांगने को कहा। श्री राम ने कहा कि हे प्रभु दोनों सेनाओं के लाखों सैनिक गति को प्राप्त हुए हैं आपसे अनुरोध है कि इन्हें प्राणदान मिले। तब भरत के पुत्र पुष्कल सहित दोनों सेनाओं के समस्त वीर फिर से जीवित हो उठे। वीरमणि ने राजपाट अपने पुत्र रुक्मांगद को सौंप दिया और स्वयं भगवान श्री राम की शरण ले ली।
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