योग दुनिया के लिये भले ही यह बेहतर सेहत के लिये किया जाने वाला एक उपाय हो लेकिन भारत में योग स्वयं को स्वयं से जोड़ने की एक प्रक्रिया के रूप में जाना जाता है। एक ऐसी क्रिया जिसके जरिये इंसान अपने भीतर झांक पाता है। योग से भारत के आध्यात्मिक दर्शन के तार गहरे से जुड़े हैं। भारत से आरंभ हुई योग की इस परंपरा को पूरी दुनिया ने हाथों हाथ लिया है संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर योग दिवस मनाने की मान्यता देकर योग के महत्व व योग की प्रासंगिकता को जाहिर किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रयासों से 2015 से प्रत्येक वर्ष 21 जून को दुनिया भर में अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाना शुरू किया। योग दिवस के बहाने आइये जानते हैं हमारे जीवन में योग के महत्व और अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाये जाने की आवश्यकता के बारे में।
कब से शुरू हुआ है योग दिवस?
योग से भारत का रिश्ता बहुत पुराना है लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर योग दिवस की शुरुआत 11 दिसंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 21 जून को विश्व योग दिवस मनाने की घोषणा के बाद से हुई थी। इसके बाद से ही दुनियाभर में साल 2015 में 21 जून को योग दिवस मनाया गया और ये सिलसिला अभी तक निरंतर चला आ रहा है।
योग का ध्यान के साथ एक विशेष संयोजन होता है, साथ ही योग को बौद्ध धर्म में भी ध्यान के लिए महत्वपूर्ण माना गया है। आज के दौर में योग मात्र ध्यान के लिए ही नहीं बल्कि शरीर को स्वस्थ एवं लचीला बनाए रखने के लिए लोकप्रिय है। शारीरिक लाभ के अलावा ये लोगों को मानसिक शांति भी प्रदान करता है।
महर्षि पतंजलि द्वारा योग के 195 सूत्रों को प्रतिपादित किया गया था जिन्हें योग दर्शन के प्रमुख स्तंभ माना गया है। इन सूत्रों के पाठन को भाष्य के नाम से जाना जाता है। पतंजलि ही पहले तथा एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने योग को धर्म, आस्था और अंधविश्वास के दायरे से बाहर निकलकर एक सुव्यवस्थित रूप प्रदान किया था। महर्षि पतंजलि ने ही अष्टांग योग की महिमा को बताया था जो स्वस्थ जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है।
ज्योतिष शास्त्र में योग उन शुभाशुभ अवसरों को कहा जाता है जिनका निर्माण आपकी कुंडली के अनुसार ग्रहों की दशा से होता है। अपनी कुंडली के शुभाशुभ योगों के बारे में जानने के लिये आप एस्ट्रोयोगी पर देश भर के प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्यों से परामर्श कर सकते हैं।
योग का अर्थ जोड़ने से लिया जाता है लेकिन आध्यात्मिक रूप से यह स्वयं को स्वयं से जोड़ने की ही प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति खुद के भीतर झांककर अपना आत्मावलोकन कर सकता है। योग हमें शारीरिक रूप से तो स्वस्थ रखता ही है साथ ही योग से हमें एक आंतरिक ऊर्जा भी मिलती है। जिससे हमारे अंदर एक गज़ब का साहस पैदा होता है, हम संयम रखना सीखते हैं, एकाग्र होना सीखते हैं। आवेश, क्रोध आदि विकारों पर नियंत्रण रखना सीखते हैं। आज के भागदौड़ भरे जीवन में जहां व्यक्ति के लिये चैन की सांस लेना दूभर हो चुका है, जहां हवा के साथ हर क्षण हम जहर को अपने अंदर खींच रहे हैं, जहां अनेक किस्म की नई-नई बिमारियों से हमारा वास्ता पड़ रहा है ऐसे में योग से बेहतर उपचार कहां मिल सकता है। बिमारियों के फैलने का मुख्य कारण हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता का कम होना होता है लगातार योगाभ्यास से हम अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ा सकते हैं। इसलिये योग का महत्व वर्तमान में बहुत अधिक है। योग दिवस मनाने की आवश्यकता इसी से समझी जा सकती है कि वर्तमान में भारतीय समाज की जीवन शैली आधुनिकता के नाम पर लगातार पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होती जा रही है वहीं दुनिया अपने विकास के लिये भारतीय मूल्यों को अपना रही है। ऐसे में आवश्यकता है कि जो लोग अपने मूल्यों को नज़रदांज या मूल्यहीन मानने लगे हैं उन्हें समय की नज़ाकत व योग की अहमियत का अहसास करवाया जाये।
इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत ही योग का जनक है लेकिन यह सवाल हर किसी के जहन में हो सकता है कि आखिरकार योग की शुरुआत कब हुई? पूरी दुनिया ने इसे भले ही 2015 से एक अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाना शुरु किया हो लेकिन योग का इतिहास योग की कहानी बहुत ही प्राचीन है इतना प्राचीन जितनी की दुनिया है। कहते हैं आदियोगी भगवान शिव ने सप्तऋषियों को योग की शिक्षा दी उन्होंने ही समस्त सृष्टि में योग का प्रचार-प्रसार किया। भगवान के भिन्न भिन्न अवतारों विशेषकर भगवान श्री कृष्ण जिन्हें योगेश्वर, योगी भी कहा जाता है, भगवान महावीर, भगवान बुद्ध आदि ने अपनी-अपनी तरह से इसे विस्तार रूप दिया। लेकिन वर्तमान में जिस योग से हम परिचित हैं उसे लगभग 200 ई. पू. महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र नामक ग्रंथ में व्यवस्थित रूप दिया बाद में सिद्ध, शैव, नाथ, वैष्णव और शाक्त आदि संप्रदायों ने विस्तार दिया। ऋग्वेद, ऋक्संहिता आदि ग्रंथों में भी योग संबंधी मंत्र प्राप्त होते हैं।
ऋक्संहिता के प्रथम मंडल के 18वें सूक्त में सातवां मंत्र है जो योग के महत्व को दर्शाता है इसमें लिखा है कि
यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन।
स धीनां योगमिन्वति।।
इसका तात्पर्य है कि योग के बिना किसी भी विद्वान का कोई यज्ञकर्म सिद्ध नहीं हो सकता है। चित्तवृतियों का निरोध योग है जो कि कर्म में व्याप्त रहता है।
ऋग्वेद में भी एक जगह मिलता है कि
स घा नो योग आभुवत् स राये स पुरं ध्याम।
गमद् वाजेभिरा स न:।।
इसका अर्थ है कि हमारी समाधि में ईश्वर की कृपा हो, उनकी दया से समाधि, ज्ञान, प्रसिद्ध का हमें लाभ हो व सभी सिद्धियों सहित प्रभु अपना आशीर्वाद देने के लिये हमारी ओर आगमन करें।
3000 ई.पू. योगाभ्यास के चित्र सिंधु घाटी सभ्यता की मोहरों व मूर्तियों पर भी मिलते हैं। आरंभ में योग के तीन अंगों का अधिक प्रचलन था तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान। इन्हें क्रियायोग की संज्ञा दी जाती है। इसके पश्चात जैन और बौद्ध धर्म के प्रचलन के साथ ही यम और नियम पर जोर दिया जाने लगा जिनमें अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप और स्वाध्याय आते हैं। लेकिन पंतजलि ने योग का वह व्यवस्थित रूप प्रस्तुत किया। इसके पश्चात ही राजयोग, हठयोग का प्रचलन होने लगा। योग के इसी अथाह सागर की कुछ छोटी-छोटी नदियां आज भी धारा प्रवाह के साथ बह रही हैं।
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