एक बहुत ही प्रचलित कहावत है कि जैसा खाये अन्न वैसा होगा मन यानि हम जिस प्रकार का अन्न यानि भोजन ग्रहण करते हैं हमारे विचार हमारा व्यवहार भी उसी प्रकार का हो जाता है। सात्विक भोजन से सात्विक गुण और तामसिक भोजन से तामसी प्रवृति हमारे अंदर आ जाती हैं। खान-पान संबंधी दोषों को दूर करने के लिये ही जातक के जन्म के छह-सात मास बाद ही सप्तम संस्कार किया जाता है जिसका नाम है अन्नप्राशन।
हिंदू धर्म के सोलह संस्कारों में अन्नप्राशन संस्कार (Annaprashan Sanskar) का भी खास महत्व है। मान्यता है कि छह मास तक शिशु माता के दुध पर ही निर्भर रहता है लेकिन इसके पश्चात उसे अन्न ग्रहण करवाया जाता है ताकि उसका पोषण और भी अच्छे से हो सके। शिशु को पहली बार माता के दुध के अलावा अन्य अन्न दुध आदि पिलाये जाने की क्रिया को अन्नप्राशन कहा जाता है। आइये जानते हैं हिंदू धर्म के सप्तम संस्कार अन्नप्राशन के बारे में।
“अन्नाशनान्मातृगर्भे मलाशाद्यपि शुद्धयति” इसका अर्थ है कि माता के गर्भ में रहते हुए जातक में मलिन भोजन के जो दोष आते हैं उनके निदान व शिशु के सुपोषण हेतु शुद्ध भोजन करवाया जाना चाहिये। छह मास तक माता का दुध ही शिशु के लिये सबसे बेहतर भोजन होता है इसके पश्चात उसे अन्न ग्रहण करवाना चाहिये इसलिये अन्नप्राशन संस्कार का बहुत अधिक महत्व है। शास्त्रों में भी अन्न को ही जीवन का प्राण बताया गया है। अन्न से ही मन का निर्माण बताया जाता है इसलिये अन्न का जीवन में बहुत अधिक महत्व है। कहा भी गया है कि “आहारशुद्धौ सत्वशुद्धि:”। अन्न के महत्व को व्याख्यायित करने वाली एक कथा का वर्णन भी धार्मिक ग्रंथों में मिलती है।
बात महाभारत काल की है। जब भीष्म पितामह शरशैया पर लौटे हुए थे तो पांडव उनसे उपदेश ले रहे थे। वे उन्हें धर्मानुकूल बातें बता रहे थे कि द्रौपदी एकदम से हंसने लगी। पितामहस सहित उपस्थित सभी को द्रौपदी का यह व्यवहार आश्चर्यजनक लगा लेकिन पितामह ने विनम्रता से हंसने का कारण पूछा। तब द्रौपदी ने कहा कि पितामह आप बहुत अच्छी ज्ञान व धर्म की बातें बता रहे हैं। सुनने में आपके उपदेश बहुत अच्छे लगते हैं लेकिन जब भरी सभा में मेरा चीरहरण किया जा रहा था उस समय आपका धर्म कहां गया था। उस समय आपने आवाज़ क्यों नहीं उठाई। क्यों नहीं आपने मेरी चीख-पुकार सुनीं। आपने क्यों नहीं दुर्योधन को धर्म का यह ज्ञान दिया बस इसी को याद कर मुझे हंसी आ गई।
भीष्म पितामह ने अब गंभीर स्वर में द्रौपदी को ऊत्तर देते हुए कहा कि पुत्री उस समय मैं जो अन्न खाता था वह दुर्योधन का अन्न था। उसी अन्न से मेरा रक्त बनता था। जैसा पापी स्वभाव दुर्योधन का था वैसा ही कुत्सित अन्न भी मुझे मिलता था। उस अन्न को खाकर मेरे मन व बुद्धि पर उसका असर हुआ था। लेकिन अर्जुन के बाणों ने पापान्न से बना सारा रक्त बहा दिया है जिसके कारण अब मेरा मन व भावनाएं शुद्ध हैं और मैं वही कह पा रहा हूं जो कि धर्मानुकूल है।
अन्नप्राशन संस्कार सातवां संस्कार है। इससे पहले पहले तीन संस्कार गर्भधान से गर्भावस्था के दौरान तक होते हैं। उसके पश्चात अगले तीन संस्कार जातक के जन्म से लेकर चार मास तक संपन्न किये जाते हैं। अन्नप्राशन संस्कार से पहले निष्क्रमण संस्कार किया जाता है जो कि जन्म के पश्चात चतुर्थ मास में किया जाता है। अन्नप्राशन संस्कार छठे या सातवें मास में किया जाता है। चूंकि छह मास तक जातक को माता का दुध ही दिया जाना चाहिये इस कारण यह संस्कार सातवें माह में किया जाना चाहिये। इसका कारण यह भी है कि इस अवस्था तक शिशु हल्का भोजन पचाने में सक्षम हो जाता है। इस समय शिशु को ऐसा अन्न दिया जाना चाहिये जो पचाने में आसान व पौष्टिक हो। इसी समय शिशु के दांत भी निकल रहे होते हैं जिससे उसका पाचनतंत्र मजबूत होने लगता है। ऐसे में पौष्टिक भोजन के सेवन से शिशु तंदुरुस्त होने लगता है।
अन्न न सिर्फ शारीरिक पोषण बल्कि मन, बुद्धि, तेज़ व आत्मिक पोषण के लिये भी आवश्यक होता है। इससे जातक तेजस्वी व बलशाली होता है। इस संस्कार के दौरान शिशु को भात, दही, शहद और घी आदि को मिश्रित कर खिलाया जाता है। अन्न से जातक का शारीरिक व आत्मिक विकास होता है। संस्कार के लिये शुभमुहूर्त देखकर उसमें देवताओं का पूजन करना चाहिये। देवपूजा के पश्चात चांदी के चम्मच से खीर आदि का पवित्र प्रसाद शिशु को मंत्रोच्चारण के साथ माता-पिता द्वारा चटाया जाता है। इस दौरान माता-पिता को निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिये
शिवौ ते स्तां व्रीहीयवावबलासावदोमधौ।
एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुंचतौ अंहस:।।
इस मंत्र का तात्पर्य है कि शिशु को जो जौ और चावल आदि अन्न प्रसाद रूप में खिलाया जा रहा है वह उसके लिये शक्तिवर्धक, पुष्टिकारक हो। देवान्न होने से ये दोनों अन्न यक्ष्मानाशक और पापनाशक हैं।
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