राहू केतु जिन्हें खगोलशास्त्री बेशक ग्रह न मानते हैं लेकिन ज्योतिष शास्त्र में इन्हें बहुत प्रभावी माना जाता है। जन्म से वक्री राहू-केतु छाया ग्रह माने जाते हैं। एक राशि में दोनों ग्रह लगभग 18 महीने तक रहते हैं और अपना राशि चक्र 18 साल में पूरा करते हैं। राहू जहां शक्ति, शौर्य, पाप-कर्म, भय, शत्रुता, दुर्भाग्य, राजनीति, कलंक, धोखाधड़ी और छल-कपट आदि के कारक माने जाते हैं तो केतु समस्त मनोरोग, हृद्य रोग, विष जनित रोग, कोढ़, भूत-प्रेत, टोने-टोटके, आक्समिक दुर्घटना आदि के कारक माने जाते हैं। राहू और केतु के छाया ग्रह के रूप में स्थापित होने की कथाएं हिंदू पौराणिक ग्रंथों में मिलती हैं। क्या है राहू-केतु की कहानी और क्यों लगाते हैं सूर्य और चंद्रमा को ग्रहण आइये जानते हैं।
पौराणिक कथा के अनुसार राहू-केतु के जन्म की कथा कुछ इस प्रकार है-
हरिण्यकश्यप के बारे में तो सभी जानते हैं। हरिण्यकश्यप एक ऐसे असुरराजा हुए हैं जिन्हें कोई नर या पशु नहीं मार सकता था। उन्हें मारने के लिये और उनके पुत्र भक्त प्रह्लाद की रक्षा के लिये स्वयं भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार धारण किया। इन्हीं हरिण्यकश्यप की एक पुत्री थी जिनका नाम था सिंहिका। सिंहिका का विवाह विप्रचिती नामक असुर से हुआ। हालांकि कुछ कथाओं में विप्रचिती को महर्षि कश्यप और उनकी पत्नी दनु की संतान भी बताया जाता है और सिहिंका को हरिण्यकश्यप की बहन। लेकिन यह मान्यता हर कहानी में मिलती है कि विप्रचिती और सिंहिका का विवाह हुआ था। सिहिंका और विप्रचिती का एक पुत्र हुआ जो जन्म से ही बहुत ही बुद्धिमान और बलशाली था। कुछ कथाओं में उनके पुत्र का नाम राहू बताया जाता है तो कुछ कथाओं में स्वरभानु। स्वरभानु अर्थात राहू को असुर माना जाता है। मान्यता है कि देवताओं और असुरों में अमृत प्राप्ति के लिये संधी हुई जिसके तहत वासुकि नाग की रस्सी और मंदराचल पर्वत को मथनी बनाते हुए क्षीरसागर का मंथन किया गया जिसमें 14 रत्नों सहित महर्षि धनवंतरि अमृत कलश लेकर उपस्थित हुए। अब अमृत को लेकर देवताओं और असुरों में अराजकता जैसा माहौल होने लगा था। स्थिति को भांपते हुए भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया और असुरों को अपने मोहपाश में बांधकर देवताओं को अमृत पान कराना शुरु कर दिया। विप्रचिती और सिंहिका के पुत्र राहू जिन्हें सिंहिकेय भी कहा जाता है देवताओं की इस चाल को समझ गये उन्होंने देवताओं का रूप धारण किया सूर्य व चंद्रमा के बीच बैठ गये। जब विष्णु ने उन्हें अमृतपान करा रहे थे तो सूर्य चंद्रमा को राहू पर संदेह हो गया और भगवान विष्णु को इस बारे में सूचित किया। भगवान विष्णु ने तुरंत अपने सुदर्शन से राहू का धड़ सिर से अलग कर दिया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी अमृत अपना काम कर चुका था। अमृत पान कर अमर हुए सिर को राहू तो धड़ को केतु का नाम दिया गया। मान्यता है कि ब्रह्मा ने राहू को सर्प का शरीर दिया तो केतु को सर्प का सिर। अपना भेद उजागर करने के कारण राहू-केतु सूर्य और चंद्रमा से अपनी शत्रुता दिखाते हैं और मौका मिलते ही उन पर ग्रहण लगाते हैं।
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