गले सर्पों का हार है/ वस्त्र व्याघ्र की खाल है/ त्रिशूल डमरू धारी/ बाबा भोले भंडारी की महिमा अपरमपार है।
विशाल जटाओं में चंद्रमा को धारण करने वाले, तीन नेत्रों से ब्रह्मांड को देखने वाले भगवान शिव शंकर जिन्हें भोलेनाथ, त्रिलोचन, नीलकंठ न जाने कितने नामों से जिन्हें जाना जाता है। इन भोले बाबा का स्वरूप बहुत आकर्षक लगता है। सावन का पावन महीना तो होता ही शिव की आराधना के लिये है। लेकिन क्या आप जानतें हैं भगवान शिव के इस विचित्र स्वरूप से के भी अपने मायने हैं। चलिये आपको बताते हैं भगवान शिव के स्वरूप से जुड़े रहस्यों के बारे में।
भगवान शिव का जो स्वरूप में हमें चित्रकलाओं या मूर्तिकला के नमूनों में देखने को मिलता है भगवान शिव ऐसे ही थे यह तो दावा नहीं किया जा सकता क्योंकि शिव तो कण-कण में विद्यमान हैं इसलिये वे साकार और निराकार दोनों ही रूपों में विद्यमान होंते हैं ऐसे में रूप विशेष में बांधना उन्हें सीमित कर देता है। लेकिन जिस रूप में उनकी पूजा की जाती है वह निराधार हो ऐसा भी नहीं है। दरअसल शिव के इस स्वरूप की रचना कलाकारों ने पौराणिक कथाओं में भगवान शिव के चरित्र चित्रण के आधार पर की है। इसलिये भगवान शिवशंकर के इस पौराणिक स्वरूप की जो छवि हम चित्रों या मूर्तियों के माध्यम से देखते हैं, पूजते हैं वह उन्हीं का एक रूप मानी जा सकती है। उनके स्वरूप की बात करें तो देखने पर हमें पता चलता है कि इनकी जटाओं से गंगा निकलती है, मस्तक पर चंद्रमा धारण कर रखा है, जिनका कंठ नीला पड़ गया है, जो गले में नरमुंड और सर्पों का हार डाले रहते हैं, जो त्रिनेत्र हैं जिन्होंने तन पर बाघ की छाल पहनी हैं, वर्षभ जिनका वाहन है, हाथों नें जिनके त्रिशूल और डमरू हैं। भगवान शिव का यह स्वरूप उन्हें आकर्षक और दैविय तो बनाता है लेकिन साथ ही शिव द्वारा धारण किये गये हर अस्त्र, शस्त्र, वस्त्र आदि का विशेष अर्थ है। एक विशेष शिक्षा भगवान शिवशंकर के इस स्वरूप से मिलती है।
जटाएं – भगवान शिव की जटाओं में चंद्रमा से लेकर गंगा तक समायी हुई लगती हैं। इन्हें जटाधारी भी कहा जाता है जिस तरह ब्रह्मांड में आकाश गंगाएं तारे चंद्रमा होते हैं उसी तरह शिव की जटाओं से भी गंगा निकलती है। चंद्रमा उनकी शोभा को बढ़ाते हैं। अर्थात भगवान शिव की जटाएं अंतरिक्ष की ही प्रतीक हैं।
चंद्रमा – बाबा भोलेनाथ की जटाओं में ही मस्तक के ठीक ऊपर चंद्रमा दिखाई देता है। समुद्र मंथन के दौरान निकलने वाले रत्नों में एक चंद्रमा भी थे जिसे भगवान शिव ने धारण कर लिया। दरअसल चंद्रमा को ज्योतिष में मन का कारक माना जाता है। यह संकेत करता है कि भगवान शिव जिन्हें हम भोले बाबा भी कहते हैं इनका मन चंद्रमा की तरह उज्जवल एवं जाग्रत है, चंचलता व भोलापन लिये है।
त्रिनेत्र – भगवान शिव के तीनों नेत्र उन्हें त्रिलोकी, त्रिगुणी और त्रिकालदर्शी बनाती हैं। तीन लोकों में स्वर्ग लोक, मृत्यु लोक या कहें भू लोक और पाताल लोक आते हैं तो सत्व, रज और तम तीन गुण माने जाते हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य तीन काल हैं। त्रिनेत्र होने के कारण ही भगवान शिव त्रिलोचन कहे जाते हैं।
सांपों का हार – सांप या कहें सर्प तमोगुणी प्रवृतियों का प्रतीक है। भगवान शिव के गले में होने के कारण यह संदेश मिलता है कि तमोगुणी प्रवृतियां भगवान शिव के वश में हैं। उनके अधीन हैं।
मुंडमाला – उनके गले में एक मुंडमाला भी दिखाई देती है। पौराणिक कथाओं की माने तो ये सभी मुंड देवी शक्ति के हैं भगवान शिव के लिये उन्होंने 108 बार जन्म लिया, उनसे विवाह किया और हर बार अपने प्राण त्यागने पड़े हर जन्म के साथ उनकी माला में एक मुंड जुड़ता चला गया। दरअसल यह मृत्यु का ही प्रतीक हैं। शिव जो कि विध्वसंक की भूमिका निभाते हैं वे संदेश देते हैं कि मृत्यु को उन्होंने अनपे वश में कर रखा है।
त्रिशूल – शिव के साथ त्रिशूल भी दिखाई देता है मान्यता है कि यह तीन तरह के तापों का नाश करने वाला है। ये ताप दैविक, दैहिक और भौतिक तापों के लिये यह एक मारक शस्त्र है। अर्थात किसी भी प्रकार के कष्ट को भगवान शिव अपने त्रिशूल से नष्ट कर देते हैं।
डमरू – जब शिव का डमरू बजने लगे तो तांडव शुरु हो जाता है और तांडव से ही विध्वंस भी होने लगता है इसलिये शिव को नियंत्रित करने के लिये शक्ति यानि माता पार्वती भी उनके साथ नृत्य करती हैं जिससे शिव व शक्ति से संतुलन कायम होता है। भगवान शिव के डमरू का रहस्य यह है कि डमरू के नाद को ही ब्रह्मा का रूप माना जाता है। दरअसल जब विध्वंस होता है तभी ब्रह्मा निर्माण करते हैं। और विध्वंस तभी होता है जब शिव का डमरू बजता है और तांडव होने लगता है।
व्याघ्र खाल – भगवान शिव ने अपने तन को व्याघ्र की खाल से ढ़क रखा है। बाघ की खाल का ही आसन भी उन्होंने धारण कर रखा है। यहां बाघ हिंसात्मक और अंहकारी प्रवृति के प्रतीक हैं। शिव इन दोनों का दमन करते हैं और आवश्यकता नुसार ही इस्तेमाल करने का संकेत करते हैं। भगवान शिव ने बाघ की खाल से अपने उन्हीं अंगों को ढ़क रखा है जिन्हें ढ़कना आवश्यक होता है यानि शिव संदेश देते हैं स्वाभिमान जरूरी है लेकिन अंहकार का दमन करना चाहिये।
भस्म – भगवान शिव अपने तन पर भस्म भी रमाते हैं। इससे शिव यह संदेश देते हैं यह संसार नश्वर है सभी को एक दिन खाक में मिलना है। जब मिटेगा तभी सृजन होगा। यहां भस्म शिव के विध्वंस की प्रतीक भी हैं जिसके बाद ब्रह्मा जी पुनर्निमाण करते हैं।
वृषभ – भगवान शिव के वाहन नंदी माने जाते हैं नंदी वृषभ यानि बैल हैं। बैल गौवंश होता है, धार्मिक दृष्टि से भी बैल की काफी अहमियत मानी जाती है। पौराणिक ग्रंथों में तो बैल यानि वृषभ को धर्म का प्रतीक भी माना जाता है। धर्म रूपी इस वृषभ के चारों पैर चार पुरुषार्थों की ओर ईशारा करते हैं जो कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं। अत: इनकी प्राप्ति शिव की कृपा से ही प्राप्त होती है। वृषभ चूंकि भगवान शिव के वाहन हैं इसलिये गौवंश की रक्षा करने का धार्मिक महत्व भी है।
कुल मिलाकर कहना यह है कि भगवान का आकार कैसा है यह कोई नहीं जानता क्योंकि जिसने उसके रूप का दिदार कर लिया उसमें इतना सामर्थ्य ही नहीं रहता कि वह उसके रूप का बखान कर सके इसलिये धार्मिक ग्रंथों में ऋषि मुनियों ने उस रूप के दर्शन हेतु प्रतीकात्मक उपाय अपनाये हैं। जिनमें से देवस्वरूपों की व्याख्या भी एक प्रतीकात्मक अर्थ लिये रहती है।
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