पूरी दुनिया में भगवान शिव शीघ्र ही प्रसन्न होने वाले देव हैं। यही कारण है, इन्हें प्रसन्न करने के लिए भक्त कई प्रकार से शिव की अराधना करते हैं।
भगवान शिव की अराधनओं में कुछ तो अत्यंत सरल होती हैं तो कुछ अत्यंत कठिन होती हैं। इन्हीं व्रत में से 16 सोमवार का व्रत भी है, जो कठिन व्रत कहलाता है। लेकिन मान्यता है कि इस व्रत को करने से भगवान शिव शीघ्र प्रसन्न होकर मनवांछित फल प्रदान करते हैं। सोलह सोमवार का व्रत मुख्य रूप से किसी विशेष मनोकामना पूर्ति के लिए रखा जाता है। इसके अलावा यह भी मान्यता है कि सोलह सोमवार का व्रत रखने से पति को दीर्घायु की प्राप्ति होती है और संतान भी सुखी रहती है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, सोलह सोमवार के व्रत की शुरुआत खुद माता पार्वती ने की थी। जब उन्होंने इस धरती पर अवतार लिया था तो एक बार पुनः भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए उन्होंने 16 सोमवार व्रत (16 Somvar Vrat) रखकर कठिन तपस्या की थी। शास्त्रों के अनुसार सोलह सोमवार के व्रत की शुरुआत सावन मास से करना सबसे शुभ माना जाता है।
सोलह सोमवार व्रत को सावन, चैत्र, वैशाख , कार्तिक और मार्गशीर्ष मास से आरंभ करना चाहिए। इन माह से व्रत आरंभ करने से इच्छित फल का प्राप्ति होती है। सोलह सोमवार के व्रत का संकल्प सावन मास से करने को सबसे शुभ बताया गया है। साल 2022 में सावन के सोमवार 18 जुलाई से प्रारंभ हो रहे हैं।
16 सोमवार व्रत की पूजा एक निश्चित समय पर की जाती है। इस व्रत की पूजा दिन के तीसरे पहर (शाम चार बजे के आसपास) में की जाती है। इस व्रत की पूजा हमेशा इसी समय पर करनी चाहिए।
सोमवार के दिन व्रत रखने वालों को सूर्योदय से पूर्व उठना चाहिए। पूजा करने से पहले नित्य क्रिया से निवृत्त होकर स्नान करना चाहिए। स्नान के दौरान पानी में गंगा जल तथा काला तिल डालकर नहाना चाहिए तथा पहली बार शरीर पर जल डालते समय
“ॐ गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती। नर्मदे सिन्धु कावेरी जले अस्मिन् सन्निधिम् कुरु।।।” मंत्र का जप करना चाहिए।
इस व्रत में गेहूं के आटे में घी व शक्कर मिलाकर उसे हल्का भून कर चूर्ण तैयार करें। इसे मुख्य प्रसाद माना जाता है। इस प्रसाद की मात्रा भी निश्चित होती है। यदि आपने प्रथम सोमवार व्रत में 250 ग्राम आटे का प्रयोग किया है तो आपको प्रत्येक सोमवार को इसी मात्रा में आटे का प्रयोग करना पड़ेगा। इस प्रसाद को अलग-अलग स्थानों पर भिन्न-भिन्न नाम से जाना जाता है, कहीं इसको गेहूं के आटा का चूर्ण तो कहीं पंजीरी कहा जाता है। इस व्रत में प्रसाद के रूप में चूर्ण के साथ किसी भी एक फल का उपयोग कर सकते हैं, लेकिन जिस फल को आप एक बार उपयोग करेंगे, उस फल को सभी सोमवार व्रत में उतनी ही मात्रा में उपयोग करना होगा, अन्यथा आपका व्रत खंडित हो जाएगा।
16 सोमवार व्रत करते समय इन नियमों का पालन करना आवश्यक माना जाता है।
सोलह सोमवार व्रत का उद्यापन 17 वें सोमवार के दिन करना चाहिए। उद्यापन किसी कुशल पंडित से कराना चाहिए। उद्यापन भी उसी समय करना चाहिए, जिस समय आप सोमवार को पूजा करते थे। उद्यापन में सवा किलो आटे का प्रसाद चढ़ाना चाहिए। प्रसाद को तीन भाग में बांट देना चाहिए व तीसरा भाग स्वयं खाना चाहिए।
उद्यापन में दशमांश जप का हवन करके सफेद वस्तुओं जैसे चावल, श्वेत वस्त्र, दूध-दही,बर्फी चांदी तथा फलों का दान करना चाहिए। इस दिन विवाहित दंपतियों को भी खाना खिलाया जाता है। लोगों को उपहार स्वरूप कुछ सामग्री भी दान में दी जाती है। इस प्रकार से देवों के देव महादेव का व्रत पूर्ण होता है और भक्तों को मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है।
शास्त्रों के मुताबिक 16 सोमवार व्रत (Solah Somvar Vrat) करने वाले को मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। कुंवारी कन्याओं को मनवांछित पति की प्राप्ति होती है। संतान सुख की प्राप्ति होती है। घर में अकारण होने वाले पति-पत्नी के मध्य क्लेश में कमी हो जाती है या ख़त्म ही हो जाता है। रोगों से मुक्ति मिलती है। शरीर में शिव-शक्ति संचार की अनुभूति होती है। अकाल मृत्यु का भय कम हो जाता है। जन्मकुंडली में अशुभ ग्रह की दशा चल रही है तो अशुभता में कमी हो जाती है।
एक समय शिवजी पार्वतीजी के साथ भ्रमण करते हुए मृत्युलोक में अमरावती नगरी पहुंचे। वहां के राजा ने एक शिव मंदिर बनवाया था, जो कि भव्य एवं रमणीक व मन को शांति पहुंचाने वाला था। भ्रमण करते समय शिव-पार्वती भी वहां ठहर गए। पार्वतीजी ने कहा- हे नाथ! आज इसी स्थान पर चौसर-पांसे खेलें। खेल प्रारंभ हुआ। शिवजी कहने लगे- मैं ही जीतूंगा। इस प्रकार उनकी आपस में वार्तालाप होने लगी। उस समय मंदिर के पुजारी पूजा करने आए।
पुजारी ने उत्तर दिया कि इस खेल में भगवान शिव के समान कोई दूसरा पारंगत नहीं हो सकता इसलिए शिवजी ही जीतेंगे। परंतु जीत पार्वतीजी की हो गयी। अत: पार्वतीजी ने पुजारी को कोढ़ी होने का श्राप दे दिया और बोला कि तूने झूठ बोला है। अब पुजारीजी कोढ़ी हो गये। शिव-पार्वतीजी वापस चले गए। कुछ समय पश्चात उस मंदिर में अप्सराएं पूजा करने आईं। अप्सराओं ने पुजारी के उसके कोढ़ी होने का कारण पूछा। पुजारी ने सारी बात बता दी। अप्सराओं ने कहा कि पुजारीजी, आप 16 सोमवार का व्रत करें तो शिवजी प्रसन्न होकर आपका संकट दूर कर देंगे।
पुजारी ने अप्सराओं से व्रत की विधि पूछी। अप्सराओं ने व्रत करने और व्रत के उद्यापन करने की संपूर्ण विधि पुजारी को बता दी। पुजारी ने विधिपूर्वक व्रत प्रारंभ किया और अंत में व्रत का उद्यापन भी किया। व्रत के प्रभाव से पुजारी कोढ़ मुक्त हो गये। कुछ दिन बाद शंकर-पार्वतजी पुन: उस मंदिर में आए तो पुजारीजी को रोगमुक्त देखकर पार्वतीजी ने पूछा- मेरे दिए हुए श्राप से मुक्ति पाने का तुमने कौन सा उपाय किया। पुजारीजी ने कहा- हे माता! अप्सराओं द्वारा बताए गए 16 सोमवार के व्रत करने से मेरा यह कष्ट दूर हुआ है।
इसके बाद पार्वतीजी ने भी सोलह सोमवार का व्रत किया, जिससे उनसे रूठे हुए कार्तिकेय जी भी आज्ञाकारी हो गये। कार्तिकेयजी ने पूछा कि हे माता! क्या कारण है कि मेरा मन सदा आपके चरणों में लगा रहता है। पार्वतीजी ने कार्तिकेय को 16 सोमवार के व्रत का माहात्म्य व विधि बताई, तब कार्तिकेयजी ने भी इस व्रत को किया तो उनका बिछड़ा हुआ मित्र मिल गया। अब मित्र ने भी इस व्रत को अपने विवाह होने की इच्छा से किया।
व्रत के फल से वह विदेश गया। वहां के राजा की कन्या का स्वयंवर था। राजा ने प्रण किया था कि हथिनी जिस व्यक्ति के गले में वरमाला डाल देगी, उसी के साथ राजकुमारी का विवाह होगा। कार्तिकेयजी के ब्राह्मण मित्र भी स्वयंवर देखने की इच्छा से वहां एक ओर जाकर बैठ गये। हथिनी ने ब्राह्मण मित्र को माला पहनाई तो राजा ने बड़ी धूमधाम से अपनी राजकुमारी का विवाह उनके साथ कर दिया। इसके बाद दोनों सुखपूर्वक रहने लगे।
एक दिन राजकन्या ने पूछा कि हे नाथ! आपने कौन-सा पुण्य किया जिससे हथिनी ने आपके गले में वरमाला पहनाई। ब्राह्मण पति ने कहा- मैंने कार्तिकेयजी द्वारा बताए गये 16 सोमवार का व्रत पूर्ण विधि-विधान सहित श्रद्धापूर्वक किया, जिसके फल से मुझे आपके जैसी सौभाग्यशाली पत्नी मिली। राजकन्या ने भी पुत्र प्राप्ति के लिए व्रत किया और सर्वगुण संपन्न पुत्र प्राप्त किया। बड़े होकर पुत्र ने भी राज्य प्राप्ति की कामना से 16 सोमवार को व्रत किया।
राजा के देवलोक जाने पर ब्राह्मण कुमार को राजगद्दी मिली, फिर भी वह इस व्रत को करता रहा। एक दिन उसने अपनी पत्नी से पूजा सामग्री शिवालय ले चलने को कहा, परंतु उसने पूजा सामग्री अपनी दासियों द्वारा भिजवा दी। जब राजा ने पूजन समाप्त किया, तो आकाशवाणी हुई कि हे राजा, तुम इस पत्नी को त्याग दो नहीं तो राजपाठ से हाथ धोना पड़ेगा।
प्रभु की आज्ञा मानकर उसने अपनी पत्नी को महल से निकाल दिया। तब वह अपने भाग्य को कोसती हुई एक बुढ़िया के पास गई और अपना दुखड़ा सुनाया तथा बुढ़िया को बताया कि मैं पूजन सामग्री राजा के कहे अनुसार शिवालय में नहीं ले गई और राजा ने मुझे निकाल दिया। बुढ़िया ने कहा कि तुझे मेरा काम करना पड़ेगा। उसने स्वीकार कर लिया, तब बुढ़िया ने सूत की गठरी उसके सिर पर रखी और उसे बाजार में भेज दिया। रास्ते में आंधी आई तो सिर पर रखी गठरी उड़ गई। बुढ़िया ने भी उसे डांटकर भगा दिया।
अब रानी बुढ़िया के यहां से निकलकर गुसांई जी के आश्रम में पहुंची। गुसांईजी उसे देखते ही समझ गए कि यह उच्च घराने की स्त्री विपत्ति की मारी है। वे उसे धैर्य बंधाते हुए बोले कि बेटी, तू मेरे आश्रम में रह, किसी प्रकार की चिंता मत कर। रानी आश्रम में रहने लगी, परंतु जिस वस्तु को वह हाथ लगाती, वह वस्तु खराब हो जाती। यह देखकर गुसांईजी ने पूछा कि बेटी, किस देव के अपराध से ऐसा होता है? रानी ने बताया कि मैंने अपने पति की आज्ञा का उल्लंघन किया और शिवालय में पूजन के लिए नहीं गई, इससे मुझे घोर कष्ट उठाने पड़ रहे हैं।
गुसांईजी ने शिवजी से उसके कुशलक्षेम के लिए प्रार्थना की और कहा कि बेटी, तुम 16 सोमवार का व्रत विधि के अनुसार करो, तब रानी ने विधिपूर्वक व्रत पूर्ण किया। व्रत के प्रभाव से राजा को रानी की याद आई और दूतों को उसकी खोज में भेजा। आश्रम में रानी को देख दूतों ने राजा को बताया। तब राजा ने वहां जाकर गुसांईजी से कहा कि महाराज! यह मेरी पत्नी है। मैंने इसका परित्याग कर दिया था। कृपया इसे मेरे साथ जाने की आज्ञा दें। शिवजी की कृपा से वे प्रतिवर्ष 16 सोमवार का व्रत करते हुए आनंद से रहने लगे और अंत में शिवलोक को प्राप्त हुए। व्रत करने वाले भक्त कथा सुनने के पश्चात शिवजी की आरती 'ॐ जय शिव ओंकारा' गाएं।
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✍️ By- टीम एस्ट्रोयोगी