उपनयन या कहें यज्ञोपवीत या विद्याध्ययन आरंभ करने का संस्कार भी कह सकते हैं। हिंदू धर्म में यह बहुत ही महत्वपूर्ण संस्कार है। सोलह संस्कारों में इसे दसवां संस्कार कहा जा सकता है। क्योंकि यह नवम संस्कार कर्णभेद के पश्चात किया जाता है। इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य जातक की भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करना होता है। आइये जानते हैं हिंदू धर्म के दसवें संस्कार उपनयन के बारे में।
जातक की शिक्षा दीक्षा आरंभ करवाने के लिये जो संस्कार किया जाता है उसे उपनयन संस्कार कहा जाता है। चूंकि शिक्षा मनुष्य के जीवन में निरंतर चलने वाली एक प्रक्रिया है जिससे शिक्षार्थी का सर्वांगीण विकास होता है। आरंभ में जातक को जब इस लायक समझा जाता कि अब वह गुरूओं से ज्ञान अर्जित करने में सक्षम है तो उस अवस्था में जातक का उपनयन संस्कार किया जाता था। प्राचीन समय में गुरु शिष्य परंपरा के तहत गुरुओं के पास जातक को रखा जाता था। उपनयन का शाब्दिक अर्थ ही सामीप्य यानि निकटता व उन्नति भी लिया जाता है। शास्त्रों के अनुसार जन्म से सभी शूद्र पैदा होते हैं लेकिन संस्कारों से जातक द्विज होते हैं। उपनयन संस्कार के बिना जातक को द्विज नहीं माना जाता। हालांकि वर्ण व्यवस्था के तहत शूद्र वर्ण व कन्याओं के लिये उपनयन संस्कार वर्जित था इसलिये उनके लिये विवाह संस्कार ही द्विजत्व प्रदान करने वाला संस्कार होता था।
उपनयन संस्कार को नवम संस्कार कर्णभेद यानि कर्णछेदन संस्कार के पश्चात किया जाता है। प्राचीन समय में वर्णाश्रम व्यवस्था के तहत भिन्न वर्णों के लिये भिन्न समयानुसार उपनयन संस्कार करने का विधान रहा है। शास्त्रानुसार यह ब्राह्मण वर्ण के जातकों का आठवें वर्ष में तो क्षत्रिय जातकों का ग्यारहवें एवं वैश्य जातकों का उपनयन बारहवें वर्ष में किया जाता था। शूद्र वर्ण व कन्याएं उपनयन संस्कार की अधिकारी नहीं मानी जाती थी। जिन ब्राह्मण जातकों की तीव्र बुद्धि हो उनके लिये उपनयन संस्कार वर्णानुसार पांचवें, जो क्षत्रिय जातक शक्तिशाली हों उनका छठे व जो वैश्य जातक कृषि करने की इच्छा रखते हों उनका उपनयन आठवें वर्ष में किया जा सकता था। उपनयन संस्कार के लिये अधिकतम निर्धारित आयु तक जिन जातकों का उपनयन संस्कार नहीं होता था उन्हें व्रात्य कहा जाता और समाज में इसे निंदनीय भी माना जाता।
वर्तमान में तो उपनयन ही नहीं बल्कि सभी संस्कारों का स्वरूप बदल चुका है लेकिन उपनयन संस्कार में बहुत बदलाव आया है। इसका कारण यह है कि अब विद्या ग्रहण करना सबका अधिकार है और जैसे ही बच्चा सोचने समझने चलने फिरने बोलने के लायक होता है माता-पिता उसे शिक्षा ग्रहण करने के लिये आंगनवाड़ी केंद्र, प्ले स्कूल आदि में दाखिल करवा देते हैं। निजि स्कूलों में 3-4 साल की आयु में ही बच्चे का दाखिला कर लिया जाता है तो राजकीय विद्यालयों में भी 6 वर्ष की आयु से बच्चों की शिक्षा आरंभ हो जाती है। फिर भी हिंदू धर्म को मानने वाले कुछ समुदायों में इस संस्कार को भी विधि-विधान से किया जाता है।
इस संस्कार के दौरान जातक को गुरु के सानिध्य में भेजा जाता है ताकि वह गुरु से ज्ञान प्राप्त कर देश व समाज की उन्नति सहित अपने जीवन को सही ढंग से जी सके। इस संस्कार के दौरान आरंभ में वेदों की शिक्षा भी आरंभ की जाती थी जिसकी शुरुआत गुरु द्वारा जातक को गायत्री मंत्र में दीक्षित कर दी जाती थी। इसके लिये पहले जातक को यज्ञोपवीत भी धारण करवाया जाता था क्योंकि यज्ञोपवीत धारण करने के पश्चात ही वह वेद शिक्षा आरंभ करने का अधिकारी हो पाता था। वेदाध्ययन अपनी-अपनी शाखाओं के अनुसार किया जाता था। अपने शिक्षा काल के दौरान जातक से ब्रह्मचर्य का पालन करने का संकल्प भी लिया जाता था। इस संकल्प के पश्चात ही गुरु उसे अपने पास रहने की आज्ञा देते थे। तत्पश्चात जातक को गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ स्वयं व गुरु के भरण-पोषण के लिये भिक्षा मांग कर लानी पड़ती थी। मान्यता है इससे जातक के अंदर से अहंकार की भावना नष्ट होती थी। गृह्यसूत्र एवं स्मृति ग्रंथों में उपनयन संस्कार की विधि विस्तार से मिलती है। इसमें वर्णानुसार जातकों को मेखला धारण करवाई जाती है जो कि ब्राह्मण बालक के लिये मूंज तो क्षत्रियों के लिये धनुष की डोर होती थी। वैश्य जातक ऊन के धागे की कोंधनी धारण करते थे। मेखला के साथ ही जातकों को दंड यानि डंडा भी दिया जाता था ब्राह्मण ढ़ाक या बेल का डंडा रखते थे तो क्षत्रिय जातक बरगद वृक्ष का वहीं वैश्य जातकों के लिये उदुंबर का दंड धारण करने का विधान था। प्राचीन समय में वन क्षेत्र अधिक होते थे सुदूर क्षेत्रों से भिक्षा मांग कर लानी पड़ती ऐसे में जातकों की सुरक्षा के लिये यह उपयोगी सिद्ध होते थे।
उपनयन संस्कार को लेकर यह भी मान्यता है कि यह संस्कार अधिकृत वर्णों के भी सभी जातकों के लिये अनिवार्य नहीं था बल्कि जो जातक वेदों की शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक होते थे उनके लिये ही उपनयन संस्कार की अनिवार्यता थी। वैदिक परंपरानुसार इस उपनयन के पश्चात जातक को गुरु या कहें आचार्यों के सानिध्य में रहना होता था इसी दौरान उन्हें सभी व्रतों का पालन भी करना पड़ता। प्रात: एवं सांय काल में हवन करना उनका नित्यकर्म था, साथ ही अपने व गुरु के पोषण हेतु भिक्षाचरण भी आवश्यक होता था। इस प्रकार वैदिक ज्ञान को प्राप्त करने के पश्चात गुरु से अंतिम दीक्षा पाने के पश्चात ही जातक को वापस आना होता था। यही उपनयन संस्कार का मुख्य ध्येय भी होता था। धार्मिक ग्रंथों में जो आख्यान मिलता है वह इस प्रकार है।
बटुक का पिता उसे लेकर आचार्य के पास जाता है वहां बटुक विनीत भाव से आचार्य को प्रणाम कहता है मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूं। तत्पश्चात गुरु वैदिक मंत्र के साथ उसे नये वस्त्र धारण करवाते हैं। इसके पश्चात कमर में मेखला बंधन करते थे। यज्ञोपवीत, अजिन एवं दंड प्रदान करते थे व बटुक इसे स्वीकार कर धारण करता था। इसके बाद अपनी अंजलि में जल लेकर बटुक की अंजलि में डालते थे व उसे सूर्य दर्शन करवा कर उसके दाहिने हाथ को पकड़ कर पूछते कि तुम्हारा नाम क्या है। इसके पश्चात वह अपना नाम लेकर कहता है कि मैं अमूक नाम वाला हूं। आचार्य पुन: पूछते हैं तुम किसके ब्रह्मचारी यानि किसके शिष्य हो। वह उत्तर देता कि आपका ब्रह्मचारी हूं। इसके बाद गुरु कहते हैं कि “हे वत्स तुम इंद्र परमैश्वर्य संपन्न के ब्रह्मचारी हो, तुम्हारे प्रथम आचार्य अग्नि हैं, दूसरा आचार्य मैं हूं। मैं तुम्हें प्रजापति, सकवता, औषधि, द्यावापृथिवी, विश्वेदेवा व समस्त भूतों के लिये रक्षार्थ समर्पित करता हूं”। इस तरह उपनयन संस्कार का अनुष्ठान संपन्न होता।
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