अशोक वाटिका ध्वसं और रावणपुत्रों से युद्ध

अशोक वाटिका ध्वसं और रावणपुत्रों से युद्ध


॥दोहा 17॥

देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।

रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु॥

 

॥चौपाई॥

चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥

रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥

नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी॥

खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥

सुनि रावन पठए भट नाना। तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥

सब रजनीचर कपि संघारे। गए पुकारत कछु अधमारे॥

पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। चला संग लै सुभट अपारा॥

आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥

 

॥दोहा 18॥

कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।

कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि॥

 

॥चौपाई॥

सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना॥

मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥

चला इंद्रजित अतुलित जोधा। बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥

कपि देखा दारुन भट आवा। कटकटाइ गर्जा अरु धावा॥

अति बिसाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा॥

रहे महाभट ताके संगा। गहि गहि कपि मर्दई निज अंगा॥

तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। भिरे जुगल मानहुँ गजराजा॥

मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई। ताहि एक छन मुरुछा आई॥

उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया। जीति न जाइ प्रभंजन जाया॥

 

॥दोहा 19॥

ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।

जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार॥

 

॥चौपाई॥

ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा। परतिहुँ बार कटकु संघारा॥

तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ॥

जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥

तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥

कपि बंधन सुनि निसिचर धाए। कौतुक लागि सभाँ सब आए॥

दसमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥

कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता॥

देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका॥

 

॥दोहा 20॥

कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।

सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिसाद॥

 

॥चौपाई॥

कह लंकेस कवन तैं कीसा। केहि कें बल घालेहि बन खीसा॥

की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखउँ अति असंक सठ तोही॥

मारे निसिचर केहिं अपराधा। कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा॥

सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया। पाइ जासु बल बिरचति माया॥

जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा॥

जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत गिरि कानन॥

धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता॥

हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा। तेहि समेत नृप दल मद गंजा॥

खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली। बधे सकल अतुलित बलसाली॥

 

भावार्थ - हनुमान के बल और बुद्धि को देखते हुए माता सीता ने हनुमान को फल खाने की अनुमति दे दी। अब हनुमान अशोक वाटिका में फलों को खाने लगे पेड़ उखाड़ने लगे, जब राक्षसों हनुमान को मारने आये तो हनुमान ने कुछ को मार डाला कुछ दौड़कर रावण के दरबार में पहुंचे, रावण ने अपनी सेना भेजी लेकिन बात नहीं बनी फिर अपने पुत्र अक्षय कुमार को एक बड़ी सेना की टुकड़ी के साथ भेजा लेकिन हनुमान ने अक्षय कुमार का भी वध कर दिया। जब रावण को इसकी खबर पहुंची तो रावण बहुत क्रोधित हुए और इंद्र पर विजय प्राप्त करने वाले अपने पुत्र मेघनाथ को हनुमान को जिंदा पकड़ कर लाने का आदेश दिया हनुमान और मेघनाथ के बीच भयंकर युद्ध हुआ लेकिन किसी भी पैंतरे से हनुमान मेघनाथ के काबू नहीं आ रहे थे। हनुमान के प्रहार से एक बार तो मेघनाथ को ऐसा लगा कि उन्हें मूर्छा आ गई हो अंत में जब कोई चारा नहीं चला तो मेघनाथ ने ब्रह्मास्त्र का प्रहार हनुमान पर किया। ब्रह्मास्त्र का सम्मान करते हुए हनुमान मूर्छित हो गए इसके बाद मेघनाथ नागपाश में बांधकर उन्हें रावण के दरबार में ले गया। रावण बहुत क्रोधित हुआ और हनुमान से उत्पात का कारण पूछा और पूछा कि इतनी शक्ति उसे किसने प्रदान की। तब हनुमान भगवान श्री राम की अपरंपार महिमा का गुणगान रावण के सामने करने लगे।

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