माता सीता की खोज में हनुमान का लंका प्रस्थान

माता सीता की खोज में हनुमान का लंका प्रस्थान


जय श्री राम जय हनुमान

श्लोक

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं।

ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌॥

रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं।

वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्‌॥1॥

 

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये।

सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा॥

भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे।

कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥2॥

 

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं।

दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌॥

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं।

रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥3॥

 

॥चौपाई॥

जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥

तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥

जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥

यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा। चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥

सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥

बार-बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥

जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥

जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना॥

जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥

 

॥दोहा 1॥

हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।

राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥

 

॥चौपाई॥

जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥

सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥

आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा॥

राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥

तब तव बदन पैठिहउँ आई। सत्य कहउँ मोहि जान दे माई॥

कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥

जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा॥

सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥

जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा॥

सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥

बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा॥

मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मैं पावा॥

 

॥दोहा 2॥

राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।

आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान॥

 

॥चौपाई॥

निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई॥

जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥

गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥

सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥

ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥

तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा॥

नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए॥

सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें॥

उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई॥

गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी॥

अति उतंग जलनिधि चहु पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा॥

 

॥छन्द॥

कनक कोटि बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।

चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना॥

गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै।

बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥१॥

 

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।

नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥

कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।

नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥२॥

 

करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।

कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं॥

एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।

रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही॥३॥

॥दोहा 3॥

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।

अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार॥

 

॥चौपाई॥

मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥

नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥

जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥

मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥

पुनि संभारि उठी सो लंका। जोरि पानि कर बिनय ससंका॥

जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंच कहा मोहि चीन्हा॥

बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे॥

तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता॥

 

॥दोहा 4॥

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।

तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥

 

॥चौपाई॥

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥

गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥

गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही॥

अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥

मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा। देखे जहँ तहँ अगनित जोधा॥

गयउ दसानन मंदिर माहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥

सयन किएँ देखा कपि तेही। मंदिर महुँ न दीखि बैदेही॥

भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा॥

 

भावार्थ - जामवंत के वचन सुनकर हनुमान को प्रसन्नता हुई। अपने साथियों को कहा कि मेरी आने तक राह देखना मुझे ऐसा महसूस हो रहा है जैसे मैं कार्य पूरा करके ही लौटूंगा। इतना कहकर हनुमान अपनी उड़ान भरते हैं जिस पर्वत पर पांव रखते उनके बल से वह सीधा पाताल में चला जाता। प्रभु श्री राम के दूत को विश्राम के लिये मैनाक पर्वत को समुद्र आदेश भी देते हैं लेकिन हनुमान उन्हें प्रणाम कर यह कहते हुए चल पड़ते हैं कि प्रभु के कार्य को संपन्न किये बगैर उन्हें कहां विश्राम है। हनुमान के बल बुद्धि की परीक्षा लेने के लिये देवता नागमाता सुरसा को भी भेजते हैं लेकिन हनुमान अपने बल और बुद्धि से सुरसा के मुंह से निकल जाते हैं। फिर हनुमान के सामने एक और मुसीबत आई जो परछाई को पकड़ उड़ने वाले जीवों को अपना शिकार बनाती थी लेकिन हनुमान उसके जाल में नहीं फंसे और उसके आक्रमण से पहले ही हनुमान ने उसका संहार कर दिया। हनुमान लंका में पंहुच गए जहां उसका सामना लंकिनी नामक राक्षसी से हुआ। लंकिनी रावण के राज से दुखी थी जब ब्रह्मा ने रावण को वरदान दिया तब ब्रह्मा जी ने कहा था जब किसी कपि अर्थात वानर के प्रहार तुम व्याकुल हो उठो तो समझ लेना कि रावण की लंका के दिन लद चुके हैं। इसके बाद हनुमान ने अपना अति सूक्ष्म रुप धारण किया और लंका में घूमने लगे। घूमते-घूमते रावण के महल तक पंहुच गये। सारा महल छाना मारा रावण को शयनकक्ष में सोते हुए भी देखा लेकिन कहीं सोने से बनी लंका के किसी महल में माता सीता दिखाई नहीं दी। 

सुंदरकांड पाठ

Talk to astrologer
Talk to astrologer
एस्ट्रो लेख
क्या आप जानते हैं सबरिमलय मंदिर के अनोखे नियम और विशेष त्योहार?

Sabarimala Temple : सबरीमाला मंदिर के कपाट खुलने की तारीखें और उत्सव की शुरुआत

जानें साल 2025 के गुरु पुष्य योग की तिथियां और समय

Guru Pushya Yog 2025: धन, समृद्धि और सफलता के लिए शुभ अवसर

सर्वार्थ सिद्धि योग 2025: जानें इसकी तिथियां और महत्व और साथ ही जानें इसके शुभ मुहूर्त

सर्वार्थ सिद्धि योग 2025: जानें इसकी तिथियां, महत्व और शुभ कार्यों के लिए मुहूर्त

Vivah Muhurat 2025: जानें 2025 में शुभ विवाह मुहूर्त, विवाह तिथि

Vivah Muhurat 2025: साल 2025 में विवाह के लिए शुभ मांगलिक मुहूर्त