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॥दोहा 53॥
की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर॥
॥चौपाई॥
नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें। मानहु कहा क्रोध तजि तैसें॥
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा। जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥
रावन दूत हमहि सुनि काना। कपिन्ह बाँधि दीन्हें दुख नाना॥
श्रवन नासिका काटैं लागे। राम सपथ दीन्हें हम त्यागे॥
पूँछिहु नाथ राम कटकाई। बदन कोटि सत बरनि न जाई॥
नाना बरन भालु कपि धारी। बिकटानन बिसाल भयकारी॥
जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा। सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा॥
अमित नाम भट कठिन कराला। अमित नाग बल बिपुल बिसाला॥
॥दोहा 54॥
द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि॥
॥चौपाई॥
ए कपि सब सुग्रीव समाना। इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रैलोकहि गनहीं॥
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर। पदुम अठारह जूथप बंदर॥
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं। जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं॥
परम क्रोध मीजहिं सब हाथा। आयसु पै न देहिं रघुनाथा॥
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला। पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला॥
मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा। ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा॥
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका। मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका॥
॥दोहा 55॥
सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम॥
॥चौपाई॥
राम तेज बल बुधि बिपुलाई। सेष सहस सत सकहिं न गाई॥
सक सर एक सोषि सत सागर। तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥
तासु बचन सुनि सागर पाहीं। मागत पंथ कृपा मन माहीं॥
सुनत बचन बिहसा दससीसा। जौं असि मति सहाय कृत कीसा॥
सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई। सागर सन ठानी मचलाई॥
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई। रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई॥
सचिव सभीत बिभीषन जाकें। बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें॥
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी। समय बिचारि पत्रिका काढ़ी॥
रामानुज दीन्हीं यह पाती। नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती॥
बिहसि बाम कर लीन्हीं रावन। सचिव बोलि सठ लाग बचावन॥
॥दोहा 56॥
बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस॥1॥
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग॥2॥
॥चौपाई॥
सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई॥
भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा॥
कह सुक नाथ सत्य सब बानी। समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी॥
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहु बिरोधा॥
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। जद्यपि अखिल लोक कर राऊ॥
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही। उर अपराध न एकउ धरिही॥
जनकसुता रघुनाथहि दीजे। एतना कहा मोर प्रभु कीजे॥
जब तेहिं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही॥
नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ। कृपासिंधु रघुनायक जहाँ॥
करि प्रनामु निज कथा सुनाई। राम कृपाँ आपनि गति पाई॥
रिषि अगस्ति कीं साप भवानी। राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी॥
बंदि राम पद बारहिं बारा। मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा॥
भावार्थ - रावण सवालों के जवाब जानने के लिये बहुत उतावला हो रहा था कह रहा था कि तुम्हारी उन तपस्वियों से मुलाकात हुई या फिर मेरा यश सुनकर व लौट गये। अब दूत उन्हें बताते हैं कि विभीषण के जाते ही प्रभु श्री राम ने उनका राजतिलक कर उन्हें लंका का राजा बना दिया। हम पकड़े गये तो वानरों ने हमें बहुत मारा-पीटा, यहां तक कि वे तो नाक-कान काटने पर उतारु थे लेकिन हमने श्री राम की शपथ दी तब जाकर हमारे प्राण बचे हैं। सेना के बारे में वर्णन करते हुए वह कहने लगे कि उनकी सेना बहुत विशाल और ताकतवर है। लंका में जो वानर उत्पात मचाकर गया वह तो केवल के छोटी सी झलक मात्र है उससे भी विशालकाय और असंख्य वानर उनकी सेना में हैं। ऐसा एक भी वानर नहीं जो आपको हराने की ताकत न रखता हो। सबके सब हमला करने को आतुर हैं लेकिन श्री राम उन्हें आज्ञा नहीं दे रहे, सब कहते हैं कि हम समुद्र को सोख लेंगें या फिर विशाल पर्वतों से उसे पाट देंगें और श्री राम के यशोबल का गान करने का सामर्थ्य तो किसी में भी नहीं है। उनका एक बाण हजारों समुद्रों को सोखने के लिये पर्याप्त है लेकिन नीति निपुण श्री राम ने आपके भाई विभीषण से सुझाव मांगा जिसके बाद वे समुद्र से रास्ता मांग रहे हैं। इस पर रावण हंसते हुए उनका मजाक उड़ाने लगा दूतों ने मौका देखकर लक्ष्मण का पत्र रावण को थमा दिया। रावण ने उसे पढ़ने के लिये मंत्री को दिया उसे सुनकर रावण भी भयभीत हो गया लेकिन किसी को इसका अहसास नहीं होने दिया उसमें लिखा था कि माता सीता को सौंपकर प्रभु श्री राम से माफी मांग लो अन्यथा स्वयं ब्रह्मा, विष्णु और महेश की शरण में जाने पर भी नहीं बचेगा। इस पर दूत भी रावण को समझाने का प्रयास करने लगे। लेकिन रावण को कौन सद्बुद्धि दे सकता था। रावण ने उन्हें भी लात मारकर वहां से भगा दिया। दूत शीश नवांकर वहां से प्रभु श्री राम की शरण में चला गया। प्रभु श्री राम की कथा सुनाकर उसने अपने वास्तविक (मुनि रुप) को पा लिया। भगवान शंकर कहते हैं हे भवानी दरअसल यह एक मुनि था जो अगस्त्य ऋषि के शाप के कारण राक्षस बना था जो कि प्रभु श्री राम के नाम का बार बार जाप करने से अपने असली रुप को पाकर अपने आश्रम में वापस चला गया है।