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॥दोहा 5॥
रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराई॥
॥चौपाई॥
लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा॥
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥
एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥
बिप्र रूप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। मोरें हृदय प्रीति अति होई॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बड़भागी॥
॥दोहा 6॥
तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम॥
॥चौपाई॥
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥
तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीत न पद सरोज मन माहीं॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥
जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा॥
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीति॥
कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥
॥दोहा 7॥
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर॥
॥चौपाई॥
जानतहूँ अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥
पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही॥
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता। देखी चहउँ जानकी माता॥
जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवन सुत बिदा कराई॥
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवाँ॥
देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा। बैठेहिं बीति जात निसि जामा॥
कृस तनु सीस जटा एक बेनी। जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी॥
॥दोहा 8॥
निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन॥
॥चौपाई॥
तरु पल्लव महँ रहा लुकाई। करइ बिचार करौं का भाई॥
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। संग नारि बहु किएँ बनावा॥
बहु बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी। मंदोदरी आदि सब रानी॥
तव अनुचरीं करउँ पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा॥
तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही॥
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा॥
अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥
सठ सूनें हरि आनेहि मोही। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥
भावार्थ - जब बजरंग बलि हनुमान लंका में घूम रहे थे तो उन्हें लगा राक्षसों की इस नगरी में शायद ही कोई सज्जन रहता हो। लेकिन तभी उनकी नजर एक महल पर पड़ी जिसमें तुलसी का पौधे थे जिस पर प्रभु श्री राम के धनुष-बाण के चिन्ह थे हो न हो यह किसी रामभक्त का निवास स्थान है तभी विभिषण को जाग आ गई और जब विभिषण ने श्री हरि, प्रभु श्री राम के नाम का स्मरण किया तो हनुमान की खुशी का ठिकाना नहीं था। हनुमान भगवान राम की कथा कहने लगे उसे सुनकर विभिषण ने उनसे सामने आने की कही फिर दोनों में देर तक प्रभु की बातें होती रही। तब श्री हनुमान ने विभिषण को अपने आने का कारण बताया और माता सीता के बारे में पूछा। विभिषण ने हनुमान को माता सीता से मिलने का पता बता दिया फिर हनुमान अशोक वाटिका में पहुंचे और उन्होंने माता सीता को देखा जो अपने चरणों में ध्यान लगा कर प्रभु श्री राम को याद कर रही थी क्योंकि माता सीता और प्रभु श्री राम के एक-एक चरण में समानता थी। हनुमान ने मन ही मन माता सीता को शीश झुकाकर प्रणाम किया। माता सीता दुखी देखकर हनुमान भी बहुत दुखी हुए। वह यह सोच ही रहे थे कि क्या किया जाए तभी वहां पर वहां अपनी पत्नी मंदोदरी सहित अन्य स्त्रियों के साथ वहां आ धमका और माता सीता को साम, दाम, भय, भेद आदि अनेक उपायों से विवाह के लिये राजी करने की कोशिश की लेकिन माता सीता ने तिनकों का पर्दा करते हुए दुष्ट रावण को करारा जवाब दिया और सचेत किया कि हे पापी तुझे अभी प्रभु श्री राम के बाण का आभास नहीं हैं। तूनें सूनें में मेरा अपहरण किया, तुझे इसकी जरा भी लज्जा नहीं है रे नीच।