श्री राम ने किया विभीषण का राजतिलक

श्री राम ने किया विभीषण का राजतिलक


॥दोहा 45॥

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।

त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥

 

॥चौपाई॥

अस कहि करत दंडवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा॥

दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा॥

अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी। बोले बचन भगत भय हारी॥

कहु लंकेस सहित परिवारा। कुसल कुठाहर बास तुम्हारा॥

खल मंडली बसहु दिनु राती। सखा धरम निबहइ केहि भाँती॥

मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती। अति नय निपुन न भाव अनीती॥

बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥

अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया॥

 

॥दोहा 46॥

तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।

जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम॥

 

॥चौपाई॥

तब लगि हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना॥

जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा॥

ममता तरुन तमी अँधिआरी। राग द्वेष उलूक सुखकारी॥

तब लगि बसति जीव मन माहीं। जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं॥

अब मैं कुसल मिटे भय भारे। देखि राम पद कमल तुम्हारे॥

तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला। ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला॥

मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ। सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ॥

जासु रूप मुनि ध्यान न आवा। तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा॥

 

॥दोहा 47॥

अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।

देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज॥

 

॥चौपाई॥

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ॥

जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवै सभय सरन तकि मोही॥

तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥

जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥

सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥

समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥

अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥

तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें॥

 

॥दोहा 48॥

सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।

ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम॥

 

॥चौपाई॥

सुनु लंकेस सकल गुन तोरें। तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥

राम बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥

सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी। नहिं अघात श्रवनामृत जानी॥

पद अंबुज गहि बारहिं बारा। हृदयँ समात न प्रेमु अपारा॥

सुनहु देव सचराचर स्वामी। प्रनतपाल उर अंतरजामी॥

उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥

अब कृपाल निज भगति पावनी। देहु सदा सिव मन भावनी॥

एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा। मागा तुरत सिंधु कर नीरा॥

दपि सखा तव इच्छा नहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥

अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥

 

भावार्थ – परिचय देने के बाद विभीषण ने प्रभु श्री राम को दंडवत प्रणाम करते हुए कहा प्रभु आपका यशोगान सुनकर आपकी शरण में आया हूं मेरी रक्षा करो। इस पर प्रभु श्री राम ने खुशी-खुशी उठाकर अपने गले लगा लिया और पास बैठाकर समझाने लगे की प्रभु की भक्ति से पापी से पापी व्यक्ति के पाप धुल जाते हैं। भगवान श्री राम कहने लगे मैं तुम्हारे बारे में सब जानता हूं तुम नीति में निपुण और नेकदिल इंसान हो लेकिन नरक जैसे माहौल और दुष्टों के संग पले बढ़े हो लेकिन उसके बावजूद भी तुम्हारे दिल में प्रभु के प्रति लगाव रहा है। इस प्रकार भगवान श्री राम विभीषण पर अपनी कृपा बरसाते हैं और समुद्र का जल मंगवाकर विभीषण का राजतिलक कर उसे लंका का राजा घोषित करते हैं और आसमान से फूलों की वर्षा होने लगती है।

सुंदरकांड पाठ

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