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॥दोहा 29॥
प्रीति सहित सब भेंटे रघुपति करुना पुंज।
पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज॥
॥चौपाई॥
जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥
सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु त्रैलोक उजागर॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू॥
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥
पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥
सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥
॥दोहा 30॥
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट॥
॥चौपाई॥
चलत मोहि चूड़ामनि दीन्हीं। रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी॥
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारति हरना॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥
अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिं सरीरा॥
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी। जरैं न पाव देह बिरहागी॥
सीता कै अति बिपति बिसाला। बिनहिं कहें भलि दीनदयाला॥
॥दोहा 31॥
निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति॥
॥चौपाई॥
सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना॥
बचन कायँ मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही॥
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥
सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥
सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं। देखेउँ करि बिचार मन माहीं॥
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता। लोचन नीर पुलक अति गाता॥
॥दोहा 32॥
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत॥
॥चौपाई॥
बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥
सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर॥
कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा॥
कहु कपि रावन पालित लंका। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना॥
साखामग कै बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥
सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥
भावार्थ - सुग्रीव, हनुमान, जामवंत सहित सभी से प्रभु श्री राम प्रेमपूर्वक मिले। जामवंत ने प्रभु श्री राम को सारा वृतांत बताते हुए कहा कि प्रभु आपका काम करने से हम धन्य हो गये लेकिन जो काम आपने हमें सौंपा था उसे करने का सारा श्रेय हनुमान को जाता है। जो भी किया हनुमान ने ही किया है। प्रभु श्री राम ने हनुमान को खुशी से गले लगा लिया और माता सीता का हाल पूछने लगे। हनुमान ने प्रभु श्री राम को माता सीता की निशानी चूड़ामणि देते हुए अनुज सहित प्रभु श्री राम के चरणों में माता सीता प्रणाम किया और सारा हाल कह सुनाया कि कैसे माता सीता आपके वियोग में आपका स्मरण करते हुए, आपके ध्यान में ही लीन रहती हैं। माता सीता के दु:खों की दास्तान सुनकर प्रभु श्री राम की कमल जैसी आंखों से भी अश्रु बहने लगे और कहा कि हनुमान मैं तुम्हारा उपकार कैसे चुकाऊं। फिर हनुमान ने लंका का सारा किस्सा श्री राम को कह सुनाया और कहा प्रभु मैने कुछ भी नहीं किया सब आपकी ही कृपा है। आपकी ही लीला है।