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वैसे तो भगवान भक्तों का बेड़ा पार लगाते हैं, लेकिन कई बार भक्त भी अपने भगवान का इतना गुणगान करते हैं, जिससे लगने लगता है कि भक्त भगवान का बेड़ा पार लगाने में लगे हैं, और इस घोर कलयुग में तो प्रभु की महिमा का गुणगान कर लोगों को प्रभु के चरणों में ध्यान लगाने के लिये प्रेरित करना बहुत ही पुण्य का काम है। हालांकि सच यह भी है कि ऐसा वही कर सकता है जिस पर प्रभु प्रसन्न हों। ऐसे ही शख्स से गोस्वामी तुलसीदास। आइये जानते हैं राम नाम को घर-घर पहुंचाने वाले, महर्षि वाल्मिकी के अवतार माने जाने वाले इस महान कवि के बारे में।
महान लोगों के जीवन के साथ अक्सर किवदंतियां जुड़ जाती हैं जिनसे उनके वास्तविक जीवन से परिचित होना बहुत मुश्किल हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदास का जीवन भी ऐसा ही रहा है। लेकिन उनके जीवन के जो प्रामाणिक तथ्य माने जाते हैं उनके अनुसार तुलसीदास जी का जन्म 1532 ई. में उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के राजापुर नामक गांव में हुआ। इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे और माता का नाम हुलसी था। लेकिन कुछ ही दिनों में मां का साया सिर से उठ गया। कहते हैं इसके बाद पिता आत्माराम दुबे ने इन्हें अभागा मानकर चुनियां नाम की एक दासी के हवाले कर दिया और खुद विरक्त हो गये। कुछ समय बाद चुनियां भी चल बसी और बालक दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर हो गया, लेकिन तमाम बुरे हालातों में भी तुलसीदास को राम का नाम आकर्षित करता था। वे साधु संतो के सानिध्य में कथाएं सुनते। एक दिन श्री अनंतानंद जी के शिष्य श्री नरहर्यानंद जिन्हें नरहरि बाबा कहते थे ने बालक तुलसीराम में छिपे तुलसीदास को ढूंढ लिया और नाम रखा रामबोला। वे इन्हें प्रभु श्री राम की नगरी अयोध्या ले गये दीक्षा देने लगे। फिर दोनों गुरु-शिष्य शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुंचे। यहीं पर उन्होंने तुलसीदास प्रभु श्री राम के चरित अवगत करवाया। फिर वे काशी आये और यहां शेष सनातन जी के पास लगभग पंद्रह सालों तक वेद-वेदांग का अध्ययन किया। इसके बाद ये अपनी नगरी वापस लौटे तो पता चला कि इनके पिता का देहांत हो चुका है। इन्होंने पिता का विधि-विधान से तर्पण किया और फिर लोगों को कथा सुना-सुनाकर अपना जीवन यापन करने लगे।
कथा सुनाने की कला में ये माहिर हो गये, एक दिन दीनानाथ पाठक नाम के एक सज्जन इनकी कथा सुनाने की शैली के मुरीद हो गये, उन्होंनें इनके बारे में जानकारी हासिल कर अपनी 12 वर्षीय कन्या रत्नावली का हाथ इनके हाथ में दे दिया। इस शुभ कार्य में तुलसीदास को अपने गुरु का भी पूरा आशीर्वाद मिला।
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तुलसीदास पहले रामबोला फिर तुलसीराम और उसके बाद अपनी विद्वता और प्रभु राम की दासता स्वीकार कर तुलसीदास कहलाये। इनके तुलसीदास बनने के पिछे भी रोचक वाकया है। कहते हैं ये अपनी पत्नी रत्नावली के प्रति बहुत आसक्त हुआ करते थे। एक बार वह मायके गई हुई थी लेकिन इनसे उनका विरह सहा न गया और रात को ही जा पंहुचे रत्नावली के द्वार पर। रत्नावली भी विदुषी स्त्री थी और कविता कौशल में भी पारंगत थी उन्होंनें उस समय उनकी हालत को देखकर जो कहा उसने तुलसीराम रामबोला को तुलसीदास बना दिया जिसके बाद रत्नावली भी स्वयं को कोसती रही कि स्वामी मैनें ऐसे तो नहीं कहा था। रत्नावली ने इस समय एक दोहा कहा.
अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति!
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत?
गोस्वामी तुलसीदास जी को ये पंक्तियां भीतर तक भेद गईं और उसी समय उनके अंदर हृद्य परिवर्तन हुआ। इसके बाद उन्होंनें प्रभु राम से नेह कर लिया और एक के बाद एक श्रेष्ठ काव्य की रचना की। इन्होंनें अपनी श्रेष्ठ रचनाओं को उस समय की लोक प्रचलित भाषा अवधि में लिखा जिसका नतीजा यह हुआ कि ये जल्द ही सफलता के शिखर पर पंहुचे और इनकी रचनाएं लोगों के दिलों तक। रामचरितमानस तब से लेकर आज तक कालजयी सिद्ध हुआ है आज भी यह घर-घर में लोकप्रिय है। लोग महर्षि वाल्मिकि को रामायण के रचयिता और आदि कवि के रुप में जानते हैं लेकिन वर्तमान में जिस रामायण से अधिकतर लोग परिचित हैं वह असल में तुलसीदास का रामचरित मानस ही है। इसी ने भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बनाया इसी से रामराज्य की कल्पना का विचार साकार हुआ।
अपने 126 साल के दीर्घ जीवन-काल रहा और 1623 में काशी में अपना शरीर त्यागा। अपने जीवन काल में इन्होंनें लगभग 22 कृतियों की रचना की जिनमें से कुछ की प्रामाणिकता पर तो कोई संदेह नहीं लेकिन कुछ रचनाओं की प्रमाणिकता पर विद्वान एकमत नहीं है। इनकी प्रमुख रचनाएं रामललानहछू, वैराग्यसंदीपनी, रामाज्ञाप्रश्न, जानकी-मंगल, रामचरितमानस, सतसई, पार्वती-मंगल, गीतावली, विनय-पत्रिका, कृष्ण-गीतावली, बरवै रामायण, दोहावली और कवितावली हैं। रामचरित मानस के सुंदरकांड और हनुमान चालिसा में इन्होंनें भगवान हनुमान के चरित्र का चित्रण अच्छे से किया है।
✍️ By- टीम एस्ट्रोयोगी