जातक के शिक्षा आरंभ करने के लिये दसवां संस्कार उपनयन किया जाता है जब जातक की शिक्षा पूरी हो जाती है तो उसके श्मश्रु यानि दाड़ी सहित सिर के केश भी उतारे जाते हैं इसे केशांत संस्कार कहा जाता है जो कि ग्यारहवां संस्कार होता है। यह संस्कार भी गुरुकुल में ही किया जाता है। इसके पश्चात जातक की शिक्षा पूरी हो जाती है और उसे गृहस्थ जीवन के लिये प्रेरित किया जाता है। प्राचीन समय में शिक्षा का यह काल लगभग 12 वर्ष का होता था। 12 वर्ष की विद्याध्ययन की समाप्ति पर गुरुकुल में ही 12वां संस्कार समावर्तन किया जाता है। यह संस्कार आचार्यों द्वारा किया जाता है इसमें जातकों को आचार्य द्वारा उपदेश देकर आगे का जीवन जीने के लिये गृहस्थाश्रम के दायित्वों के बारे में बताया जाता है। आइये जानते हैं हिंदू धर्म के बारहवें संस्कार समावर्तन के बारे में।
जातक की शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात जब जातक की गुरुकुल से विदाई की जाती है तो उसे आगामी जीवन जो कि एक गृहस्थ के रूप में निर्वाह करना होता के लिये गुरु द्वारा उपदेश देकर विदाई दी जाती है। इसी को समावर्तन संस्कार कहते हैं इससे पहले जातक का ग्यारहवां संस्कार केशांत किया जाता है जिसकी जानकारी हम पूर्व के लेख में दे चुके हैं। समावर्तन संस्कार के बारे में ऋग्वेद में लिखा गया है कि -
युवा सुवासाः परिवीत आगात् स उ श्रेयान् भवति जायमानः।
तं धीरासः कवय उन्नयन्ति स्वाध्यों 3 मनसा देवयन्तः।।
इसका अर्थ है कि युवा पुरुष नये वस्त्रों को धारण कर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विद्याध्ययन के पश्चात ज्ञान के प्रकाश के प्रकाशित होकर जब गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है तो वह प्रसिद्धि प्राप्त करता है। वह धैर्यवान, विवेकशील (बुद्धिमान), ध्यान और ज्ञान का प्रकाश जो उसके मन में होता है उसके बल पर ऊच्च पदों पर आसीन होता है।
समावर्तन संस्कार के महत्व को बताने वाली एक कथा भी धार्मिक ग्रंथों में मिलती है। कथा कुछ इस प्रकार है कि प्रजापति ब्रह्मा के पास देवता, दानव और मानव तीनों ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए विद्याध्ययन करने लगे। धीरे-धीरे समय व्यतीत होने लगा और वह समय भी आया जब उन्हें लगा कि उनका समावर्तन संस्कार यानि उन्हें प्रजापति द्वारा उपदेश दिया जाना चाहिये। उन्होंने ब्रह्मा जी के सामने उपदेश देने की इच्छा प्रकट की। ब्रह्मा जी भी उनकी परीक्षा लेने लगे। सबसे पहले देवताओं की बारी आई ब्रह्मा जी ने सिर्फ एक शब्द कहा। वह शब्द था द, थोड़ा सोचने के बाद देवताओं ने कहा प्रभु हम समझ गये हैं कि आप क्या उपदेश देना चाहते हैं। स्वर्गलोक में भोग ही भोग हैं जिनमें लिप्त होकर अंतत: हमारा पतन हो जाता है और स्वर्गलोक से गिर जाते हैं। द से आपका तात्पर्य है कि हम अपनी इंन्द्रियों पर काबू कर अपनी भोग विलास संबंधी इच्छाओं का दमन करना सीखें। ब्रह्मा जी जवाब से प्रसन्न हुए और कहा तुम ठीक समझे। अब उनके सामने दानव प्रस्तुत हुए ब्रह्मा जी ने उनसे भी द कहा। इतने वर्षों तक ब्रह्मा जी के यहां शिक्षा पाई थी असुरों ने अनुमान लगाया कि निश्चित ही ब्रह्मा जी हमारी दमनकारी प्रवृति की ओर ईशारा कर रहे हैं कि हम हमेशा हिंसक होते हैं, क्रोधी होते हैं, दुष्कर्मी होते हैं इसलिये द से दया ही हमारे लिये कल्याण का एकमात्र मार्ग है। यही निष्कर्ष ब्रह्मा जी के सामने प्रकट किया। ब्रह्मा जी दानवों से भी बहुत प्रभावित हुए और उनके जवाब से भी संतुष्ट हुए। इसके पश्चात मानवों की बारी आई। शब्द एक ही था द। अब मानवों ने इसे इस तरह लिया कि हम लोग जीवन भर कमाते रहते हैं, संग्रह करते रहते हैं, लोभी होकर और ज्यादा कि इच्छा रखते हैं इसलिये हमारे हाथ से कुछ छुटना भी चाहिये। द का तात्पर्य हमारे लिये है कि दानादि में ही हमारा हित है। इस प्रकार मनुष्यों के जवाब ने भी ब्रह्मा जी को संतुष्ट किया और कहा कि सभी के लिये दान, दया और दमन ही उन्नति का श्रेष्ठ मार्ग है। गृहस्थाश्रम को अच्छे से निर्वाह करने का मार्ग यही है।
वर्तमान समय में स्कूल कॉलेज में हम जिसे दिक्षांत समारोह कहते हैं वह एक प्रकार से समावर्तन संस्कार का ही आधुनिक और परिवर्तित रूप है।
जैसा कि उपरोक्त कथा से दान पुण्य करना, व्यर्थ इच्छाओं का दमन करना, मनुष्यों सहित समस्त प्रकृति व प्राणियों के प्रति सहानुभूति की भावना रखना ही इस संस्कार का मूल उपदेश है। प्राचीन काल में जब शिष्य अपनी शिक्षा पूर्ण कर लेते थे लगभग 25 वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचर्य का पालन करने के पश्चात मानव कल्याण की शिक्षा गुरु द्वारा उन्हें दी जाती थी। यह संस्कार सामूहिक रूप से भी होता था। इसमें गुरु द्वारा जो उपदेश दिया जाता था उसमें कहा जाता था कि
उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधक
इसका तात्पर्य है कि उठो, जागो और तलवार की धार से भी तीखे गृहस्थ जीवन के पथ को पार करो।
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