सामाजिक विज्ञान में किसी भी समाज की प्राथमिक ईकाई परिवार को माना जाता है। परिवार का निर्माण या कहें परिवार का आरंभ मनुष्य की एक ऐसी अवस्था से होता है जिसमें युवक व युवती दोनों ही शारीरिक, मानसिक और आर्थिक और सामाजिक तौर पर इस लायक होते हैं कि वे मानव समाज के विकास और मानव जीवन के सृजन में अपना योगदान दे सकें। हालांकि नर मादा के मिलन और परिवार की भावना अन्य जीवों में भी पायी जाती है लेकिन मनुष्य अपनी बौद्धिक क्षमता के कारण सभी प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ है। इसका प्रमाण मानव समाज के विकासक्रम में देखा जा सकता है। मनुष्य ने पीढ़ी दर पीढ़ी भावी पीढ़ियों को अपने संस्कारों के जरिये सुसंस्कृत किया। हर धर्म के अपने संस्कार हैं लेकिन विवाह इनमें सबसे खास होता है। आइये जानते हैं हिंदू धर्म के तेरहवें संस्कार विवाह के बारे में।
विवाह केवल एक संस्कार मात्र नहीं बल्कि अपने आप में एक पूरी संस्था है, व्यवस्था है। यहीं से मनुष्य के चार आश्रमों में महत्वपूर्ण गृहस्थ आश्रम का आरंभ होता है। उसकी घर गृहस्थी की शुरूआत होती है। हिंदू धर्म में तो विवाह और भी खास मायने रखता है। अन्य संस्कृतियों में जहां विवाहेतर संबंध विच्छेद के प्रावधान हैं लेकिन हिंदू धर्म में विवाह का बंधंन जन्म जन्मांतर का माना जाता है।
श्रुति ग्रंथो में विवाह के स्वरूप को व्याख्यायित करते हुए कहा गया है कि दो शरीर, दो मन, दो बुद्धि, दो हृद्य, दो प्राण एवं दो आत्माएं जब आपस में में समन्वय कर एक दूसरे के प्रति अगाध प्रेम के व्रत पालन का संकल्प भगवान शिव और माता पार्वती के प्रेमादर्शों से धारण करते हैं यही विवाह है।
गर्भाधान से आरंभ होने वाले हिंदू धर्म के सोलह संस्कारों में विवाह तेरहवां संस्कार होता है। इस संस्कार को बारहवें संस्कार समावर्तन के पश्चात किया जाता है इसमें जातक अपनी शिक्षा दीक्षा पूरी कर गुरुजनों के आशीर्वाद से गृहस्थ आश्रम की शुरुआत के लिये तैयार होता है। प्राचीन समय में चूंकि कन्याओं व चतुर्थ वर्ण के जातक उपनयन, केशांत और समावर्तन जैसे संस्कारों के अधिकारी नहीं थे इसलिये उनके लिये द्विजत्व प्राप्त करने का एकमात्र संस्कार विवाह ही होता था। इसलिये इनके लिये विवाह संस्कार विशेष रूप से खास मायने रखता था।
मान्यता है कि जातक जब जन्म लेता है तो वह देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण का ऋणि होता है। पूजा-पाठ, यज्ञ हवन आदि से देव ऋण से उसे मुक्ति मिल जाती है। वेदाध्यन यानि गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात वह ऋषि ऋण से भी उऋण हो जाता है लेकिन पितृ ऋण तब तक नहीं उतरता जब तक वह स्वयं पिता नहीं बन जाता और उसके लिये पहली आवश्यकता है विवाह। इसलिये शास्त्रानुसार पितृ ऋण से मुक्ति के लिये भी विवाह संस्कार बहुत आवश्यक होता है।
विवाह के शाब्दिक अर्थ को ही समझा जाये तो वि और वाह के मेल से बना है जिसका अभिप्राय है विशेष रूप से अपने उत्तरदायित्वों का वहन करना।
मानव सभ्यता के आरंभ में जब विवाह जैसी कोई परंपरा या कहें प्रथा या कहें संस्कार नहीं था और कोई भी किसी से संबंध स्थापित कर सकता था। किसी को यह आभास नहीं होता था कि कौन किसकी संतान है। समाज मातृसत्तात्मक संरचना वाले होते थे। संतान को माता के नाम से ही जाना जाता था। वैदिक युग के आरंभ होने तक यही व्यवस्था मानी जाती है। लेकिन वैदिक काल के पश्चात ऋषि मुनियों ने इस तरह के संबंधों को पाशविक मानते हुए नये नियमों की स्थापना की। मान्यता है कि मर्यादा की रक्षा के लिये ऋषि श्वेतकेतु ने विवाह प्रणाली की स्थापना की। वहीं से परिवार बनने की परंपरा का आरंभ हुआ। विवाह के भी कई प्रकार होते हैं मनुस्मृति में 8 प्रकार के विवाहों का जिक्र किया गया है। वर्तमान में जो विवाह हमें हिंदूओं में देखने को मिलता है जो वेदमंत्रों के उच्चारण के साथ अग्नि के सात फेरे लेकर संपन्न किया जाता है वह ब्रह्म विवाह किया जाता है।
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार मान्यता है कि विवाह संस्कार से जातक की अगली पिछली और स्वयं की मिलाकर कुल 21 पीढ़ियां पाप से मुक्त हो जाती हैं। मनु ने इस बारे में लिखा भी है –
दश पूर्वांन् परान्वंश्यान् आत्मनं चैकविंशकम्।
ब्राह्मीपुत्रः सुकृतकृन् मोचये देनसः पितृन्।।
हिंदू धर्म में विवाह संस्कार कोई भोगलिप्सा का साधन नहीं बल्कि इसकी धार्मिक मान्यताएं हैं। मान्यता है कि इस संस्कार से अंत:शुद्धि होती है। जब अंत:करण शुद्ध होता है तभी तत्वज्ञान होता है और भगवत प्रेम पैदा हो सकता है। यही मनुष्य जीवन का परम ध्येय भी होता है।
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