हिंदू धर्म में मनुष्य की आयु 100 बरस की मानी गई है। इन सौ वर्षों को चार आश्रमों में विभाजित किया गया है। प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचर्य तो इसके पश्चात 50 वर्ष तक गृहस्थ आश्रम के होते हैं। इस अवस्था तक व्यक्ति अपनी तीसरी पीढ़ी को देखने में सक्षम हो जाता है। उसकी संतान अब पारिवारिक दायित्वों का पालन करने में सक्षम हो जाती है इसलिये आगे का जीवन समाज को समर्पित करने का होता है। इसलिये 50 की उम्र से 75 की आयु तक वानप्रस्थ आश्रम का पालन किया जाता है। 75 की आयु के पश्चात श्रुति ग्रंथों में सन्यास ग्रहण करवाये जाने का विधान है जिसका मृत्यु पर्यन्त पालन करना होता है। वानप्रस्थ आश्रम से सन्यास आश्रम में प्रवेश विधि-विधान से करवाया जाता है यही सन्यास संस्कार कहलाता है। हिंदू धर्म में गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि तक सोलह संस्कार बताये जाते हैं सन्यास इनमें पंद्रहवां संस्कार है। आइये जानते हैं सन्यास संस्कार के बारे में।
मनुष्य जीवन के लिये हिंदू धर्म में ब्रह्मचर्य, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास ये चार आश्रम बताये गये हैं। चार ही पुरुषार्थ बताये गये हैं धर्म अर्थ काम और मोक्ष। ये आश्रम एक प्रकार से जीवन की चार अवस्थाएं हैं जिनका उद्देश्य इन चार पुरूषार्थों की प्राप्ति होता है। सन्यास अंतिम अवस्था मानी जाती है और मोक्ष को परम पुरूषार्थ यानि जीवन का अंतिम ध्येय मोक्ष की प्राप्ति है जो कि सन्यासी की तरह जीवन व्यतीत करने से मिल सकता है। सन्यास का अर्थ होता है सम्यक त्याग। यानि मानवीय जीवन की लालसाओं से विरक्ति, सत्य जो कि ईश्वर होता है उसकी खोज़ के प्रति जीवन को समर्पित करना ही सन्यास कहलाता है। सन्यासी को मोह, माया, क्रोध, अहंकार आदि सब से पार पाना होता है। सन्यास आश्रम का पालन करना कठिन होता है इसलिये यहां तक पंहुचने के लिये जन्म से लेकर युवावस्था तक ब्रह्मचर्य का पालन कर कड़ी तपस्या करनी होती है। इसके पश्चात गृहस्थ आश्रम के जरिये पारिवारिक दायित्वों का निर्वाह भी किसी साधना से कम नहीं होता। फिर एक अवस्था के पश्चात वानप्रस्थ जीवन जीते हुए पारिवारिक दायित्वों का त्याग कर समाज को समर्पित होना भी सन्यास की ओर अग्रसर होने का ही चरण है। वानप्रस्थ से व्यक्ति मोह माया से विरक्त होकर समाज के प्रति अपना दायित्व निभाता है इसके पश्चात उसकी जिम्मेदारी होती है कि वह अपने जीवन को सार्थक करते हुए बचे हुए समय में ईश्वर का ध्यान लगाये। जीवन के सत्य को उसके महत्व को उसकी सार्थकता का विश्लेषण करे। इसलिय सन्यास आश्रम का धार्मिक दृष्टि से तो महत्व है वरन यह जीवन के लिये भी आवश्यक है। सन्यासियों के अनुभवों का ही परिणाम है कि आज हम धर्म, शास्त्र, पाप-पुण्य आदि की समझ रख सकते हैं।
सन्यास के दौरान तमाम तृष्णाओं का त्याग कर ब्रह्मविद्या का अभ्यास करना होता है माना जाता है कि केवल इसी से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।
अन्य संस्कारों की तरह सन्यास संस्कार भी विधिपूर्वक किया जाता है। इसमें यज्ञ-हवन कर वेद मंत्रों का उच्चारण करते हुए सन्यास ग्रहण करने वाले को सृष्टि के कल्याण हेतु बाकि जीवन गुजारने का संकल्प करवाया जाता है। वैसे तो सन्यास संस्कार 75 वर्ष की आयु में किया जाता है लेकिन यदि किसी में संसार के प्रति विरक्ति का, वैराग्य का भाव पैदा हो जाये तो वह किसी भी आयु में सन्यास ले सकता है।
केवल नारंगी वस्त्र धारण करना या घर त्याग देना, भिक्षुक साधु बन जाने से कोई सन्यासी नहीं हो जाता जैसा कि वर्तमान में अक्सर हमें देखने को मिलता है। सन्यासी का पूरा जीवन ईश्वर के प्रति समर्पित होता है वह जीवन के रहस्यों को खोजकर सत्य का परीक्षण करते हुए अपने अनुभव लोक कल्याण हेतु सृष्टि के सुपूर्द करता है। धर्म का ज्ञान लोगों में बांटकर सेवा करता है।
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