वानप्रस्थ चार आश्रमों में तीसरा आश्रम और हिंदू धार्मिक संस्कारों में चौदहवां संस्कार है। वानप्रस्थ वह अवस्था है जिसमें मनुष्य पारिवारिक दायित्वों से मुक्त होकर अपने जीवन को समाज के प्रति समर्पित करने का संकल्प लेता है। इस लिहाज से वानप्रस्थ संस्कार सामाजिक विकास के नज़रिये बहुत अहम होता है। इसमें व्यक्ति अपने अनुभवों से समाज कल्याण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। आइये जानते हैं हिंदू धर्म के सोलह संस्कारों में से चतुर्दश संस्कार वानप्रस्थ के बारे में।
वानप्रस्थ संस्कार का हिंदू धर्म में बहुत अधिक महत्व है। यह संस्कार धार्मिक दृष्टि से तो महत्व है ही लेकिन इसकी सामाजिक महत्ता भी बहुत अधिक होती है। शास्त्रों के अनुसार अपने से तीसरी पीढी यानि दादा बनने के पश्चात व्यक्ति पितृ ऋण से मुक्त हो जाता है। ऐसे में वह अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को ज्येष्ठ पुत्र या कहें परिवार के समझदार और योग्य व्यक्तियों के हाथ में थमाकर अपने आप को सामाज कल्याण के कार्यों में समर्पित कर सकता है। व्यक्ति द्वारा लिये जाने वाले इसी संकल्प को वानप्रस्थ कहा जाता है। यहां से तीसरे आश्रम की शुरुआत हो जाती है और सन्यास लेने की अवस्था तक का जीवन समाज को समर्पित रहता है। मनु के अनुसार वानप्रस्थी से सन्यास और सन्यास से मोक्ष का मार्ग मिलता है। इसकी सामाजिक महत्ता को देखते हुए ही वानप्रस्थ व्यक्ति को राष्ट्र का प्राण, मनुष्य जाति का शुभचिंतक एवं देवस्वरूप समझा जाता है। 100 वर्ष के प्राकृतिक आयु को 25-25 वर्षों के चार कालों में बांटा गया है जिसमें 50 साल तक व्यक्ति ब्रह्मचर्य औ गृहस्थ जीवन का पालन करता है। वानप्रस्थ संस्कार का मुख्य उद्देश्य सेवाधर्म है। इस अवस्था में व्यक्ति स्वाध्याय, मनन, सत्संग, ध्यान, ज्ञान, भक्ति, योग आदि साधना द्वारा अपने जीवन का आध्यात्मिक विकास भी करता है। प्राचीन समय में समाज कल्याण के लिये समाज सेवियों की फौज वानप्रस्थी ही होते थे। यह अलग बात है कि वर्तमान में यह संस्कार चलन में नहीं है जिससे अंतिम समय तक मनुष्य मोह, माया, लोभ आदि से घिरा रहता है।
स्मृति ग्रंथों में वानप्रस्थ के बारे में लिखा है
एवं वनाश्रमे तिष्ठान पातयश्चैव किल्विषम्।
चतुर्थमाश्रमं गच्छेत् सन्न्यासविधिना द्विज:।।
इसका अभिप्राया है कि गृहस्थ आश्रम के पश्चात वानप्रस्थ ग्रहण करना चाहिये। यह मनोविकारों को दूर कर निर्मल बनाता है जो सन्यास के लिये जरूरी होती है।
मनुस्मृति भी कहती है कि
महार्षिपितृदेवानां गत्वाड्ड्नृण्यं यथाविधि:।
पुत्रे सर्वं समासज्य वसेन्माध्यस्थमाश्रित:।।
यानि उम्र के ढ़लने के साथ ही पुत्र को गृहस्थी का दायित्व सौंप वानप्रस्थ ग्रहण करें एवं देव पितृ व ऋषि ऋण से मुक्ति पायें।
वानप्रस्थ संस्कार सामुहिक रूप से भी किया जा सकता है और व्यक्तिगत रूप से भी इसके लिये मंच तैयार कर सामूहिक आयोजन भी किया जा सकता है। अन्य संस्कारों की तरह इस संस्कार को भी पूजा पाठ के साथ संपन्न किया जाता है। इसके लिये वानप्रस्थ ग्रहण करने वाले व्यक्ति को पीले रंग के वस्त्र पहनाये जाते हैं और पंचगव्य का पान करवाकर संकल्प करवाया जाता है। आवश्यक हो तो पीले रंग का यज्ञोपवीत भी धारण करवाया जाता है। कमरबंद के साथ लंगोटी, दंड जिसे धर्मदंड कहा जाता है एवं पीला दुपट्टा भी होना चाहिये। सात कुशाओं को एक साथ बांधकर उनसे ऋषि पूजन करना चाहिये। पीले वस्त्र में कोई पवित्र पुस्तक, वेद आदि की पूजा की जाती है। यज्ञ पूजा कलावा लेपटे हुए नारियल से की जाती है। अभिषेक के लिये कम से कम 5 लोटे या कलश हों, इनकी संख्या 24 हो तो बहुत अच्छा रहता है। कन्याओं अथवा सुयोग्य साधकों से अभिषेक करवाया जाता है। वानप्रस्थी को सर्वप्रथम स्नानादि के पश्चात पीले वस्त्र धारण करने चाहिये इसके पश्चात संस्कार स्थल पर आसन ग्रहण के समय पुष्प अक्षत से मंगलाचरण बोला जाता है। वानप्रस्थी को संस्कार के महत्व व उसके दायित्वों के बारे में उपदेश दिया जाता है। इस प्रक्रिया के पश्चात सकल्प करवाया जाता है और तिलक व रक्षासूत्र बंधन कर उपचार किये जाते हैं।
वानप्रस्थी हाथ में पुष्प, अक्षत एवं जल लेकर वानप्रस्थ व्रत ग्रहण करने की सार्वजनिक घोषणा करते हुए संकल्प लेता है कि उसका जीवन अब उसका अपना या परिवार का न होकर समस्त समाज का है, वह अब समाज की संपत्ति है। अब वह स्वयं या पारिवारिक लाभ के लिये नहीं बल्कि विश्वकल्याण के लिये अपने दायित्वों का निर्वाह करेगा। इस समय जो संकल्प लिया जाता है वह इस प्रकार है -
ॐ तत्सदद्य श्रीमद् भवगतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवत्तर्मानस्य अद्य श्री ब्रह्मणो द्वितीये पराधेर् श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे भूलोर्के जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आयार्वत्तैर्क - देशान्तगर्ते ......... क्षेत्रे......... मासानां मासोत्तमेमासे......... पक्षे......... तिथौ......... वासरे......... गोत्रोत्पन्नः......... नामाऽहं स्वजीवनं व्यक्तिगतं न मत्वा सम्पूर्ण- समाजस्य एतत् इति ज्ञात्वा, संयम-स्वाध्याय-उपासनेषु विशेषतश्च लोकसेवायां निरन्तरं मनसा वाचा कमर्णा च संलग्नो भविष्यामि इति संकल्पं अहं करिष्ये।
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