पौष का महीना बहुत पावन माना जाता है, इस महीने में आने वाली एकादशियां, अमावस्या एवं पूर्णिमा का भी विशेष महत्व माना जाता है। अमावस्या जहां पितरों की शांति के लिये तर्पण आदि करने के लिये शुभ मानी जाती है तो वहीं पूर्णिमा मोक्षदायिनी। लेकिन जब बात सांसारिक सुखों व जीवन की आती है तो संतान का सुख सर्वोपरि नज़र आने लगता है। संतान सुख की प्राप्ति के लिये ही बहुत खास दिन माना जाता है पौष मास की शुक्ल एकादशी को। इस एकादशी को पुत्रदा एकादशी भी कहा जाता है। श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि भी पुत्रदा एकादशी कहलाती है।
2024 में पौष पुत्रदा एकादशी 21 जनवरी 2024, रविवार को है।
पारण का समय (व्रत समाप्ति का समय ) – सुबह 07:15 से 09:21 बजे तक (21 जनवरी 2022)
एकादशी तिथि शुरु- शाम 07:26 से (20 जनवरी 2024)
एकादशी तिथि समाप्त- शाम 07:26 तक (21 जनवरी 2024)
वैसे तो हिंदू धर्म के अनुयायियों के लिये सभी एकादशी व्रत खास अहमियत रखते हैं, प्रत्येक वर्ष की 24 और अधिकमास की 2 एकादशियों को मिलाकर इनकी संख्या 26 हो जाती है ये सभी एकादशियां अपना विशेष महत्व रखती हैं लेकिन पौष मास व श्रावण मास की शुक्ल एकादशियों को संतान प्राप्ति के लिये बहुत ही विशेष दिन माना जाता है। कहते हैं इस दिन विधिपूर्वक व्रत रखने व भगवान विष्णु की पूजा करने से संतान का सुख मिलता है। यहां तक इस एकादशी व्रत की कथा सुनने या पढ़ने मात्र से ही वाजपेय यज्ञ के समान फल मिलता है।
एकादशी की कथाओं को सुनाने वाले स्वयं भगवान श्री कृष्ण हैं और उनके बारे में जानने व कथाएं सुनने वालें हैं धर्मराज युधिष्ठिर। पौराणिक ग्रंथों में श्री कृष्ण युधिष्ठिर को जो कहानी सुनाते हैं वह कुछ इस तरह है।
भद्रावती नाम की एक नगरी थी जिसमें सुकेतुमान नाम के राजा का राज हुआ करता था। राजा बहुत ही न्यायप्रिय था, जनता भी उसके राज में काफी खुश थी, राजा हमेशा प्रजा की भलाई के कदम उठाया करता। लेकिन राजा सहित समस्त प्रजा को दिन ब दिन एक ही चिंता सताये रहती कि राजा की कोई संतान नहीं थी। रानी शैव्या भी संतान न होने से हमेशा परेशान रहा करतीं। राजा के पितर भी सोचते रहते कि अभी तो उनका पिंडदान करने के लिये सुकेतुमान है लेकिन इसके बाद कौन करेगा? खुद राजा भी सोचता कि उसके मरने के बाद उसका नामलेवा कौन होगा, कौन उसके लिये पिंडदान करेगा? बिना संतान के पितरों व देवताओं के ऋण से उसे कैसे मुक्ति मिलेगी? कुल मिलाकर राजा का नि:संतान होना राजा व प्रजा के लिये भारी दुख का विषय था। और एक बार तो राजा इतना अधिक दुखी हुई की उसने प्राण त्यागने तक ठान ली लेकिन फिर उन्हें अहसास हुआ कि ऐसा तो सोचना भी पापकर्म है।
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राजा तरह तरह के कामों में खुद को व्यस्त रखते लेकिन जैसे ही थोड़े समय के लिये भी उन्हें एकांत मिलता संतान की चिंता उन्हें घेर लेती। एक दिन राजा जंगल में चले गये भटकते भटकते लगभग आधा दिन बीत गया, प्यास ने राजा को व्याकुल कर दिया थोड़ी देर भटकने के बाद एक सरोवर दिखाई दिया जिसमें कमल खिले थे, हंस विचरण कर रहे थे। तालाब के किनारे मुनियों की कुटिया बनी हुई थी। राजा इस नज़ारे को देखकर हैरान रह गये पहले तो उन्हें यहां पर ऐसा मंजर देखने को नहीं मिला था। वह मुनियों को दंडवत प्रणाम कर उनके पास बैठ गया और मुनियों से पूछा हे महात्माओ आप लोग कौन हैं और यहां कैसे आना हुआ है, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं। मुनियों ने कहा राजन हम विश्वदेव हैं और इस सरोवर में स्नान करने के लिये आये हैं। आज पुत्रदा एकादशी का दिन हैं।
पुत्र का नाम सुनते ही राजा का सारा दुख आंसुओं के जरिये बाहर आने लगा और मुनियों से गिड़गिड़ाकर बोले हे मुनिवर मैं संतान के सुख से वंचित हूं अत: मुझे भी कोई उपाय बतायें जिससे मेरे आंगन में भी किलकारी गूंजे। मुनियों ने कहा राजन आज का दिन बहुत शुभ है पौष मास की शुक्ल एकादशी है तुम इसका विधिपूर्वक उपवास करो, तुम्हारी मनोकामना जरुर पूरी होगी। तत्पश्चात मुनियों के कहे अनुसार ही राजा ने पुत्रदा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया व द्वादशी के दिन पारण किया। कुछ समय के पश्चात ही रानी शैव्या की गोद भर गई और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।
इस प्रकार जो भी पुत्रदा एकादशी की व्रत विधिपूर्वक रखता है और जो इस कथा को पढ़ता या सुनता है उसकी मनोकामनाएं भी पूर्ण होती हैं।
एकादशी से पहले दिन व्रती को तामसी व्यंजनों जैसे लहसुन, प्याज आदि का सेवन नहीं करना चाहिये। साथ ही ब्रह्मचर्य का भी पालन करना चाहिये। एकादशी के दिन प्रात: काल स्नानादि कर व्रत का संकल्प लेना चाहिये। भगवान विष्णु के बाल गोपाल रूप की पूजा इस दिन करनी चाहिये और उपोरक्त कथा पढ़नी या सुननी चाहिये। रात्रि में भगवान का भजन कीर्तन करते हुए जागरण करना चाहिये और द्वादशी के दिन सूर्य देव को अर्घ्य देकर पूजा संपन्न करनी चाहिये। द्वादशी के दिन ही ब्राह्मण या किसी जरुरतमंद भूखे व्यक्ति को भोजन करवाकर, वस्त्रादि दान दक्षिणा के रूप में देकर उन्हें संतुष्ट करने के पश्चात ही व्रत का पारण करना चाहिये।
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