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Jagannath Bhagwan: भगवान जगन्नाथ, जिनका अर्थ 'ब्रह्मांड के स्वामी' है, भगवान विष्णु के ही एक रूप हैं। वे ओडिशा के पुरी में स्थित जगन्नाथ मंदिर में अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ पूजे जाते हैं। उनकी मूर्तियाँ अपने विशिष्ट, हाथ-पैर रहित रूप के कारण जानी जाती हैं, जो निराकार ब्रह्म का प्रतीक है। जगन्नाथ मंदिर भारत के चार पवित्र धामों में से एक है और यहाँ हर साल भव्य रथ यात्रा निकाली जाती है।
भगवान जगन्नाथ को महाप्रभु के रूप में भी जाना जाता है। ‘जगन्नाथ’ नाम दो संस्कृत शब्दों- जगत् यानी “ब्रह्मांड” और नाथ यानी “स्वामी” या “प्रभु”- से मिलकर बना है। इस प्रकार, जगन्नाथ का अर्थ होता है “ब्रह्मांड के स्वामी।” इस मंदिर में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की त्रिमूर्ति की आराधना की जाती है।
भगवान जगन्नाथ, भगवान बलदेव और माँ सुभद्रा की पूजा रत्नवेदी पर सुदर्शन चक्र के साथ सम्पन्न होती है। चारों देवताओं की प्रतिमाएँ नीम की गहरे रंग वाली लकड़ी से निर्मित की गई हैं, जिसे सभी जातियों के लिए शुभ माना जाता है। यह इस सत्य का भी प्रतीक है कि भगवान जगन्नाथ समय और स्थान की सीमाओं से परे होकर सार्वभौमिक प्रेम और भाईचारे के प्रतीक माने जाते हैं। यही कारण है कि यह मंदिर, उन पारंपरिक हिंदू मंदिरों से अलग दिखाई देता है जहाँ देवताओं की मूर्तियाँ सामान्यतः पत्थर या बहुमूल्य धातुओं में तराशी जाती हैं। यहाँ देवताओं को ऋतु के अनुसार विविध वस्त्रों और आभूषणों से अलंकृत किया जाता है।
स्कंदपुराण, ब्रह्मपुराण और अन्य पुराणों सहित बाद के उड़िया पुराणों में वर्णित प्रसिद्ध कथाओं के अनुसार, भगवान जगन्नाथ की आराधना प्रारंभ में एक सावर राजा और आदिवासी प्रमुख विश्वावसु द्वारा श्री नीला माधवा के रूप में की जाती थी।
सत्य युग में राजा इंद्रद्युम्न मालव देश पर शासन करते थे। वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे। भगवान के दिव्य स्वरूप के बारे में जानने के बाद, राजा इंद्रद्युम्न ने अपने ब्राह्मण पुजारी विद्यापति को उस देवता की खोज पर भेजा, जिनकी विश्वावसु नामक सावर प्रमुख द्वारा गहरे जंगल में गुप्त उपासना की जाती थी। विद्यापति ने उस स्थान तक पहुँचने के लिए भरसक प्रयास किए, पर प्रारंभ में उन्हें सफलता नहीं मिली। बाद में, परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि विद्यापति ने विश्वावसु की पुत्री ललिता से विवाह कर लिया।
विवाह के बाद, विद्यापति के बार-बार अनुरोध पर विश्वावसु उन्हें आँखों पर पट्टी बाँधकर उस गुफा में ले गए जहाँ भगवान नीला माधवा की पूजा होती थी। बुद्धिमान विद्यापति ने रास्ते को पहचानने के लिए, चलते समय भूमि पर सरसों के बीज गिराते गए। जब ललिता ने यह शुभ समाचार राजा तक पहुँचाया, तो राजा इंद्रद्युम्न तुरंत भगवान के दर्शन की लालसा में ओद्र देश-जिसे आज ओडिशा कहा जाता है-की यात्रा पर निकल पड़े।
लेकिन वहाँ पहुँचकर वे स्तब्ध रह गए, क्योंकि भगवान की मूर्ति वहाँ से लुप्त हो चुकी थी। राजा अत्यंत दुःखी हुए, पर उन्होंने यह संकल्प लिया कि बिना भगवान के दर्शन किए वे वापस नहीं लौटेंगे। उन्होंने नील पर्वत पर आमरण अनशन आरंभ कर दिया। तभी एक दिव्य वाणी हुई-“तुम्हें भगवान के दर्शन अवश्य होंगे।”
इसके पश्चात, राजा ने एक हज़ार अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न किए और भगवान विष्णु के लिए एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया। मंदिर में भगवान नरसिंह की पहली प्रतिमा नारद जी द्वारा लाकर स्थापित की गई। आगे चलकर, एक रात राजा को स्वप्न में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र, सुभद्रा और चक्र सुदर्शन का दिव्य रूप दिखाई दिया। एक आकाशवाणी ने उन्हें समुद्र तट पर तैरते हुए एक विशाल, गहरे रंग के दिव्य लकड़ी के लट्ठे को लाने और उससे इन मूर्तियों का निर्माण करवाने का आदेश दिया।
ऋषि नारद ने उस दिव्य लकड़ी के लट्ठे को एक ऊँची वेदी पर रखने का सुझाव दिया, जिसे आज महावेदी के नाम से जाना जाता है। उसी समय दिव्य शिल्पकार श्री विश्वकर्मा एक वृद्ध, झुर्रीदार बढ़ई का रूप धारण कर राजा के समक्ष प्रकट हुए और उनसे अनुरोध किया कि वे उन्हें इसी लकड़ी से देवताओं की मूर्तियाँ तराशने का अवसर दें। विश्वकर्मा ने राजा और रानी के समक्ष एक ही शर्त रखी-21 दिनों तक कक्ष का द्वार बिल्कुल भी नहीं खोला जाएगा।
कुछ दिनों तक भीतर से औज़ारों की आवाज़ आती रही, पर दो सप्ताह बाद एक दिन जब भीतर से कोई ध्वनि नहीं सुनाई दी तो रानी अत्यंत व्याकुल हो उठीं। उन्हें लगा कि शायद वह वृद्ध बढ़ई अब जीवित नहीं रहा। उनके आग्रह पर, 17वें दिन राजा ने दरवाजा खुलवाया। भीतर जो दृश्य था, वह आश्चर्यजनक था-तीन मूर्तियाँ निर्मित तो थीं, पर उनके हाथ अधूरे थे, और बढ़ई वहाँ से गायब हो चुका था।
इसके बाद, राजा इंद्रद्युम्न ने स्वयं श्री विश्वकर्मा से अनुरोध किया कि वे कल्पवट के समीप देवताओं के लिए एक भव्य मंदिर का निर्माण करें। अंततः भगवान ब्रह्मा स्वयं आए और दिव्य अनुष्ठानों के साथ भगवान जगन्नाथ, बलभद्र, सुभद्रा और सुदर्शन चक्र की प्रतिष्ठा की।
भगवान जगन्नाथ को दारुब्रह्म कहा जाता है। स्कंद-पुराण के पुरुषोत्तम-क्षेत्र महात्म्य के 28वें अध्याय में भगवान ब्रह्मा, राजा इंद्रद्युम्न को भगवान श्री जगन्नाथ की वास्तविक पहचान बताते हुए कहते हैं- “हे श्रेष्ठ राजा, इसे मात्र लकड़ी की प्रतिमा समझकर भ्रमित न हों। यह वास्तव में परम ब्रह्म का ही स्वरूप है। चूँकि परम ब्रह्म सभी दुखों का नाश करते हैं और शाश्वत आनंद प्रदान करते हैं, इसीलिए वे दारु-रूप में प्रकट होते हैं। चारों वेदों के अनुसार भगवान पवित्र दारु से अवतरित होते हैं। वे सम्पूर्ण ब्रह्मांड के सृजनकर्ता हैं, यहाँ तक कि उन्होंने स्वयं को भी उत्पन्न किया है।”
(अध्याय 28, श्लोक 39-41)
इसके पश्चात, राजा इंद्रद्युम्न ने शास्त्रीय विधानों के अनुसार भगवान के दैनिक अनुष्ठानों और विशेष उत्सवों की परंपरा प्रारंभ की, जो आज तक अखंड रूप से चल रही है। राजा इंद्रद्युम्न द्वारा निर्मित भगवान जगन्नाथ का मंदिर, जिसकी ऊँचाई 1000 हाथ कही जाती है, विश्व का सबसे भव्य स्मारक और भगवान विष्णु को समर्पित सबसे सुंदर मंदिर माना जाता है।
श्री जगन्नाथ, श्री बलदेव और माता सुभद्रा की पूजा रत्नवेदी पर सुदर्शन चक्र के साथ की जाती है। इन सभी देवताओं की प्रतिमाएँ गहरे रंग की नीम की पवित्र लकड़ी से निर्मित हैं, जबकि सामान्यतः हिंदू मंदिरों में देवताओं की मूर्तियाँ पत्थर या बहुमूल्य धातुओं में तराशी जाती हैं। श्री जगन्नाथ का वर्ण श्याम (काला), श्री बलभद्र का श्वेत, माता सुभद्रा का हल्दी जैसा पीला और सुदर्शन चक्र का वर्ण लाल है। इन अनोखी मूर्तियों का स्वरूप इस सत्य को दर्शाता है कि श्री जगन्नाथ समय और स्थान की सीमाओं से परे, सार्वभौमिक प्रेम और बंधुत्व का प्रतीक हैं।
श्री जगन्नाथ के प्रकटीकरण की महिमा वेदों, उपनिषदों और पुराणों से लेकर संस्कृत, ओड़िया तथा अन्य भारतीय भाषाओं में रचित अनगिनत साहित्यिक ग्रंथों में विस्तार से वर्णित है।
श्वेताश्वेतर उपनिषद (अध्याय 3, श्लोक 19) में वर्णित है- “वह (परम दिव्य सत्ता) हाथ-पैरों से रहित होकर भी गति करता है और सब कुछ धारण करता है; वह आँखों के बिना देखता है और कानों के बिना सुनता है। वह सब कुछ जानने योग्य को जानता है और स्वयं जिसका कोई ज्ञाता नहीं। उसे लोग प्रथम पुरुष और महान कहते हैं।”
श्रीजगन्नाथ सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ हैं। वे परमेश्वर (सर्वोच्च भगवान), परम-ब्रह्म (सर्वव्यापी दिव्य सत्ता) और परमात्मा (सर्वोच्च चेतना) हैं।
परम भक्त उन्हें अनेक नामों से पूजते आए हैं- सत्य एक है; ज्ञानीजन उसे अनेक रूपों में व्यक्त करते हैं।
वे पुरुषोत्तम हैं-अर्थात् ईश्वरीय सत्ता का सर्वोच्च स्वरूप (पुरुष = दिव्य शक्ति, उत्तम = सर्वोच्च)।
वे महाप्रभु हैं-उनकी खुली भुजाएँ स्वागत की मुद्रा बनकर भक्तों को अपने स्नेह से आलिंगन और संरक्षण देती हैं।
वे महाबाहु हैं-उनकी समानांतर भुजाएँ अनंत दिशाओं तक विस्तृत होकर असंख्य भक्तों का सहारा बनती हैं।
वे निराकार हैं-उनका स्वरूप दिव्य है; सिर चौकोर और सपाट, चेहरा छाती से संयुक्त, बिना गर्दन, बिना कान और बिना पारंपरिक अंगों के।
वे चकदोला हैं-उनकी विशाल, गोल, गहन नेत्रों वाली दिव्य दृष्टि सब पर समान रूप से रहती है; वे सब कुछ देखते, सुनते और जानते हैं।
भगवान जगन्नाथ श्याम वर्ण, भगवान बलभद्र श्वेत वर्ण और माता सुभद्रा हल्दी के समान पीली हैं। सुदर्शन चक्र का रंग लाल है। वे सभी धर्मों के स्वामी हैं-चाहे कोइ हिंदू हो या गैर-हिंदू, प्रत्येक व्यक्ति उनके चरणों में सांत्वना और शरण पाता है, भले ही उनकी व्याख्या अलग-अलग क्यों न हो। इसलिए कहा गया-सत्य एक है; ज्ञानीजन उसे भिन्न-भिन्न रूपों में कहते हैं।
इसी प्रकार, विविध धार्मिक पंथों और परंपराओं से जुड़े भक्त, अपनी-अपनी शैली में भगवान जगन्नाथ का स्मरण और उपासना करते हैं।
पुरी का श्री जगन्नाथ मंदिर भारत के जगन्नाथ पूरी, ओडिशा राज्य में स्थित एक अत्यंत पवित्र और प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ है। यह मंदिर भगवान जगन्नाथ को समर्पित है, जिन्हें श्रीकृष्ण का ही एक स्वरूप माना जाता है। हिन्दुओं के चार धामों में इसकी विशेष गणना होती है। यहाँ प्रतिदिन भव्य पूजा-अर्चना होती है, और प्रतिवर्ष होने वाली रथ यात्रा विश्व प्रसिद्ध है जिसमें भगवान जगन्नाथ, उनके भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा भव्य रथों में विहार करते हैं। लाखों भक्त इस उत्सव में शामिल होने पुरी पहुँचते हैं।
यह मंदिर कलिंग शैली की अद्भुत वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है। इतिहास के अनुसार इसका निर्माण 12वीं शताब्दी में गंग वंश के राजा अनन्तवर्मन चोडगंग देव ने करवाया था, जिसे बाद में कई शासकों ने संवर्धित किया। मंदिर का सुदर्शन चक्र और ऊँचा ध्वज इसकी पवित्रता का प्रतीक हैं। जगन्नाथ मंदिर की रसोई भारत की सबसे बड़ी रसोइयों में गिनी जाती है जहाँ भगवान के लिए महाप्रसाद तैयार होता है। यह मंदिर धार्मिक आस्था, संस्कृति और परंपराओं का एक जीवंत केंद्र है, जहाँ हर दिन अनगिनत भक्त दर्शन के लिए आते हैं।