- Home
- Spirituality
- Gods
- Shakambhari
Shakambhari Mata: शाकंभरी माता को अन्न, प्रकृति और जीवन की रक्षक देवी के रूप में पूजा जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जब पृथ्वी पर भयंकर अकाल पड़ा और जीव-जंतु भूख से त्रस्त हो गए, तब माता शाकंभरी ने करुणामयी रूप धारण कर संसार का पालन किया। कहा जाता है कि माता ने अपने शरीर से शाक, सब्ज़ियां और अन्न उत्पन्न कर समस्त प्राणियों की रक्षा की, इसी कारण उन्हें शाकंभरी नाम प्राप्त हुआ।
माता शाकंभरी का स्वरूप सौम्य, शांत और मातृत्व भाव से परिपूर्ण माना जाता है। वे केवल एक देवी नहीं, बल्कि प्रकृति और मानव जीवन के बीच गहरे संबंध की प्रतीक हैं। खेतों की हरियाली, अन्न की समृद्धि और जीवन की निरंतरता को माता की कृपा से जोड़ा जाता है। शाकंभरी माता का स्मरण हमें प्रकृति के संरक्षण, अन्न के सम्मान और संतुलित जीवन जीने का संदेश देता है।
माता शाकम्भरी नाम का अर्थ अत्यंत गहरा और भावपूर्ण है। “शाक” का अर्थ होता है सब्ज़ी, वनस्पति या अन्न और “भरी” का अर्थ होता है पालन करने वाली या पोषण देने वाली। इस प्रकार शाकम्भरी का शाब्दिक अर्थ हुआ- शाक-सब्ज़ियों और अन्न के माध्यम से संसार का पालन करने वाली देवी।
शाकंभरी माता की कथा पौराणिक ग्रंथों में विस्तार से वर्णित है। कथाओं के अनुसार एक समय पृथ्वी पर दुर्गम नामक दैत्य ने भयंकर आतंक फैला रखा था। उसके अत्याचारों के कारण लगभग सौ वर्षों तक वर्षा नहीं हुई, जिससे धरती पर भीषण सूखा पड़ गया। चारों ओर अन्न और जल का घोर अभाव हो गया, लोग भूख-प्यास से मरने लगे और जीवन संकट में आ गया। इतना ही नहीं, उस दैत्य ने ब्रह्माजी से चारों वेद भी चुरा लिए थे।ऐसी विकट स्थिति में आदिशक्ति मां दुर्गा ने मां शाकंभरी देवी के रूप में अवतार लिया। मान्यता है कि मां के सौ नेत्र थे। उन्होंने करुणा से रोना प्रारंभ किया, और उनके अश्रुओं से धरती पर जल का प्रवाह पुनः शुरू हो गया। इससे पृथ्वी पर हरियाली लौटी और जीवन का संचार हुआ। अंततः मां शाकंभरी ने दुर्गम दैत्य का वध कर संसार को उसके आतंक से मुक्त कराया। तभी से मां शाकंभरी को साग-सब्ज़ी, वनस्पति और अन्न की देवी माना जाता है। पौष मास में शाकंभरी नवरात्रि मनाई जाती है, जिसका समापन पौष पूर्णिमा को होता है। राजस्थान में स्थित मां शाकंभरी देवी के शक्तिपीठ अत्यंत प्रसिद्ध हैं।
माँ शाकम्भरी देवी को आदिशक्ति माँ दुर्गा का करुणामयी और पालनकर्ता स्वरूप माना गया है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, महाभारत के वनपर्व में उल्लेख मिलता है कि देवी ने शिवालिक पर्वत श्रृंखला में सौ वर्षों तक कठोर तप किया था। इस दौरान वे केवल शाकाहार ग्रहण करती थीं और महीने में एक बार ही आहार लेती थीं। उनके तप और संयम से प्रभावित होकर ऋषि-मुनि उनके दर्शन हेतु आए। देवी ने उनका स्वागत शाक-सब्जियों से किया, तभी से वे “शाकम्भरी” कहलाईं, अर्थात शाक द्वारा संसार का पालन करने वाली देवी।
स्कंद पुराण के अनुसार यह पवित्र क्षेत्र अत्यंत प्राचीन है, जहाँ सूर्यकुंड, विष्णुकुंड और बाणगंगा जैसे तीर्थ स्थित हैं। इसी क्षेत्र में शाकेश्वर महादेव विराजमान हैं और उनके समीप माँ शाकम्भरी देवी सर्वकामेश्वरी रूप में पूजित हैं। देवी भागवत में वर्णन है कि जब पृथ्वी पर सौ वर्षों तक वर्षा नहीं हुई और भयंकर अकाल पड़ा, तब मुनियों की प्रार्थना पर माँ शाकम्भरी प्रकट हुईं। उन्होंने अपने शरीर से विभिन्न प्रकार के शाक उत्पन्न कर संसार का भरण-पोषण किया और सृष्टि को विनाश से बचाया।
दुर्गमासुर की कथा भी माँ शाकम्भरी से जुड़ी है। जब दुर्गम नामक दैत्य ने वेदों को चुरा लिया और अकाल का संकट गहरा गया, तब माँ शाकम्भरी ने शताक्षी रूप धारण किया। उनके सौ नेत्रों से बहते अश्रुओं से पृथ्वी पर जल का प्रवाह हुआ। अंततः माँ ने दुर्गमासुर का संहार कर धर्म और जीवन की पुनः स्थापना की।
मान्यता है कि वर्तमान सहारनपुर स्थित शक्तिपीठ की स्थापना आदि शंकराचार्य द्वारा की गई थी। यह स्थान माँ का स्वयंभू सिद्धपीठ माना जाता है, जहाँ आज भी भक्त माँ की करुणा, ममता और शक्ति का अनुभव करते हैं। माँ शाकम्भरी देवी का इतिहास त्याग, पालन और करुणा का अद्भुत प्रतीक है, जो उन्हें जगतजननी के रूप में प्रतिष्ठित करता है।
शाकंभरी पूर्णिमा, जिसे शाकंभरी जयंती भी कहा जाता है, शाकंभरी नवरात्रि का अंतिम दिन होती है।
अधिकांश नवरात्रियाँ शुक्ल प्रतिपदा से प्रारंभ होती हैं, लेकिन शाकंभरी नवरात्रि इससे अलग होती है। यह पौष मास में अष्टमी तिथि से शुरू होकर पूर्णिमा तिथि पर समाप्त होती है। इसी कारण शाकंभरी नवरात्रि की अवधि सामान्यतः आठ दिनों की होती है
शाकंभरी पूर्णिमा के दिन माता शाकंभरी की विशेष पूजा-अर्चना, व्रत और अन्न-दान का महत्व माना जाता है। यह दिन अन्न, शाक-फल और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का प्रतीक है।
शाकंभरी माता के कई प्रसिद्ध मंदिर भारत के विभिन्न भागों में स्थित हैं, जहाँ श्रद्धालु दूर-दूर से दर्शन के लिए पहुँचते हैं। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जनपद में स्थित शाकंभरी माता का मंदिर अत्यंत प्रसिद्ध है और इसे माता के प्रमुख शक्तिपीठों में गिना जाता है। यहाँ नवरात्रि और विशेष पर्वों पर भारी संख्या में श्रद्धालु दर्शन-पूजन के लिए आते हैं।
राजस्थान में सांभर झील के समीप स्थित शाकंभरी माता का मंदिर भी विशेष धार्मिक महत्व रखता है। मान्यता है कि यह क्षेत्र माता की तपस्थली रहा है और यहाँ आकर भक्त अन्न-समृद्धि व सुख-शांति की कामना करते हैं।
इसके अतिरिक्त कर्नाटक के बादामी क्षेत्र में भी शाकंभरी माता का एक प्राचीन मंदिर स्थित है। ये सभी मंदिर माता शाकंभरी की अन्नदायिनी और जीवनदायिनी शक्ति के प्रतीक माने जाते हैं।
माँ शाकंभरी देवी का सबसे बड़ा और सबसे प्राचीन सिद्धपीठ उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जनपद में स्थित है। मान्यता है कि यही उनका प्रमुख और आद्य शक्तिपीठ है, जो शिवालिक पर्वत श्रृंखला के पावन अंचल में विराजमान है। शास्त्रों और लोक परंपराओं के अनुसार माँ शाकंभरी ही वैष्णो देवी, चामुंडा, कांगड़ा वाली, ज्वाला देवी, चिंतपूर्णी, कामाख्या, चंडी, बाला सुंदरी, मनसा, नैना तथा शताक्षी देवी जैसे अनेक नामों और रूपों में पूजी जाती हैं। माँ को रक्तदंतिका, छिन्नमस्तिका, भीमादेवी, भ्रामरी और श्री कनकदुर्गा के रूप में भी स्मरण किया जाता है।
देश के विभिन्न भागों में माँ शाकंभरी के कई पीठ हैं, लेकिन सहारनपुर स्थित शक्तिपीठ को सबसे प्राचीन और सिद्ध माना जाता है। यह मंदिर उत्तर भारत के सबसे अधिक दर्शन किए जाने वाले मंदिरों में से एक है और मान्यता के अनुसार वैष्णो देवी के बाद उत्तर भारत का दूसरा प्रमुख शक्तिपीठ है। इसके अतिरिक्त राजस्थान में सकराय पीठ और सांभर पीठ भी प्रसिद्ध हैं। नौ देवी यात्रा में माँ शाकंभरी का नवम और अंतिम दर्शन होता है, जहाँ उनका स्वरूप सबसे अधिक करुणामय और ममतामयी माना गया है।