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Dattatreya Swamy: भगवान दत्तात्रेय त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश के संयुक्त अवतार माने जाते हैं । लोग उन्हें गुरुदेव दत्ता, दत्तात्रेय स्वामी, दत्ता महाराज कहकर भी स्मरण करते हैं, उनका जन्म माता अनसूइया और महर्षि अत्रि के तप से हुआ। माता अनसूइया की पतिव्रता शक्ति और महर्षि अत्रि की तपस्या के कारण ही त्रिदेव ने प्रसन्न होकर पुत्र रूप में अवतार लिया।
दत्तात्रेय पूरे संसार में विचरण करने वाले अवधूत रूप में रहते थे, यानी वे किसी बंधन में नहीं बंधे। वे सरलता, स्वतंत्रता और परमात्मा के अनुभव का रास्ता दिखाते हैं। इनके तीन सिर त्रिदेवों की शक्तियों का संकेत देते हैं- सृजन, पालन और संहार।
एक समय की बात है, ऋषि अत्रि और उनकी पत्नी अनुसूया के रूप में दो महान संत पृथ्वी पर निवास करते थे। योग और तांत्रिक परंपराओं में माना जाता है कि स्त्रियाँ अपने पति की सेवा करके अत्यंत ऊँचा आध्यात्मिक बल प्राप्त कर सकती हैं। माता अनुसूया भी ऐसी ही तपस्विनी थीं। उन्होंने अपने पति की सेवा करते- करते, जबकि ऋषि अत्रि कठोर तप और ध्यान में लीन रहते थे, अत्यंत महान आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त कर ली थी।
उनकी पवित्रता और शक्ति इतनी अधिक थी कि देवियाँ भी उनसे ईर्ष्या करने लगीं और उन्हें परखना चाहती थीं। इसलिए वे त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु और शिव- के पास गईं और उनसे अनुरोध किया कि वे पृथ्वी पर जाकर अनुसूया की परीक्षा लें।
हिंदू परंपरा के अनुसार, यदि कोई अतिथि घर आए, तो उसे भोजन और आतिथ्य देना अनिवार्य माना जाता है। अतिथि को भूखा लौटाना अशुभ माना जाता है।
एक दिन, जब ऋषि अत्रि स्नान के लिए नदी पर गए हुए थे, अनुसूया घर पर अकेली थीं। उसी समय त्रिदेव सन्यासी- रूप में भिक्षा माँगते हुए उनके घर पहुँचे। उस समय घर में भोजन तैयार नहीं था, इसलिए अनुसूया ने उनसे कहा कि वे थोड़ा प्रतीक्षा करें, ताकि भोजन तैयार किया जा सके।
लेकिन उन संन्यासियों ने कहा- “धन्यवाद, पर हमारी एक शर्त है: आप हमें बिना वस्त्र पहने भोजन परोसें।”
हिंदू परंपरा में यदि कोई संत कुछ माँग ले तो उसे मना करना अत्यंत अशुभ माना जाता है। इसलिए अनुसूया एक गहरे संकट में पड़ गईं- वे किसी तरह इस विचित्र मांग को कैसे पूरी करें?
अनुसूया भीतर गईं, अपने हाथ में थोड़ा जल लिया और बाहर आकर उन सन्यासियों पर छिड़क दिया। उसी क्षण, वे तीनों छोटे- छोटे शिशुओं में बदल गए।
अनुसूया ने उन्हें अपनी गोद में उठाया और अपने ही स्तनों से दूध पिलाया। इस प्रकार त्रिदेवों की परीक्षा की सभी शर्तें पूर्ण हो गईं।
देवता प्रसन्न हुए और बोले- “हम तुम्हें वरदान देना चाहते हैं। जो चाहो माँग लो।”
अनुसूया ने कहा- “मैं चाहती हूँ कि आप तीनों एक होकर मेरे गर्भ में प्रवेश करें और मेरे पुत्र के रूप में जन्म लें।”
त्रिदेवों ने यह वचन स्वीकार किया और एक सत्ता के रूप में उनके गर्भ में प्रवेश कर लिया।
जब ऋषि अत्रि लौटे, तो वे इस दिव्य घटना को जानकर अत्यंत प्रसन्न हुए।
हर युग में एक "युगाचार्य" होता है- एक ऐसा अवतार जो उस युग का सर्वोच्च आध्यात्मिक मार्गदर्शक होता है। जैसे द्वापर युग में श्रीकृष्ण युगाचार्य थे, वैसे ही त्रेता युग में दत्तात्रेय सर्वोच्च गुरु माने गए।
कथा के अनुसार, दत्तात्रेय का जन्म ब्रह्मा, विष्णु और शिव- तीनों के संयुक्त रूप से हुआ, और वे तीन मुखों के साथ प्रकट हुए। पर माता अनुसूया ने कहा कि इस रूप में समाज में रहना कठिन होगा, इसलिए वे तीनों मुख एक हो गए।
आज भी बहुत- से भक्त दत्तात्रेय को या तो विष्णु का रूप मानते हैं या शिव का। लेकिन दत्तात्रेय का सच्चा स्वरूप उस परम सत्ता का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें सृष्टि, पालन और संहार- ये तीनों सिद्धांत समाए हुए हैं और उससे परे भी हैं।
एक बार राजा यदु ने भगवान दत्तात्रेय से उनके गुरु का नाम पूछा। तब उन्होंने कहा: “आत्मा ही मेरा गुरु है, किंतु मैंने प्रकृति के 24 रूपों से शिक्षा ग्रहण की है।” ये है मेरे 24 गुरु-
पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा, समुद्र, अजगर, कपोत, पतंगा, मछली, हिरण, हाथी, मधुमक्खी, मधु निकालने वाला, कुरर पक्षी, कुमारी कन्या, सर्प, बालक, पिंगला वैश्या, बाण बनाने वाला, मकड़ी, भृंगी कीट।
भगवान दत्तात्रेय ब्रह्मा, विष्णु और महेश का संयुक्त अवतार माने जाते हैं, इसलिए उनकी उपासना से त्रिदेवों की कृपा एक साथ प्राप्त होती है। वे “श्री गुरुदेव दत्त” के रूप में संसार को ज्ञान और आत्मज्ञान का मार्ग दिखाते हैं। दत्तात्रेय जी ने प्रकृति के 24 गुरुओं से शिक्षा ली और यह संदेश दिया कि सच्चा ज्ञान किसी भी जगह और किसी भी साधन से पाया जा सकता है, बस दृष्टि और मन पवित्र होना चाहिए। उनकी उपासना भक्ति, ज्ञान, मोक्ष और जीवन में शांति लाती है। माना जाता है कि उनका स्मरण संकटों को दूर करता है, परिवार में सुख-समृद्धि बढ़ाता है और अज्ञानता को नष्ट कर मनुष्य को आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ाता है। वे अवधूत स्वरूप हैं—जो परम आनंद में स्थित रहते हैं और लोगों को भी उसी परम सुख और आत्मबोध की ओर ले जाते हैं।
स्नान और सफाई- सुबह जल्दी उठकर स्नान करें। यदि गंगा में स्नान संभव न हो तो नहाने के पानी में थोड़ा-सा गंगाजल मिलाएँ। इसके बाद घर का मंदिर या पूजा स्थल अच्छी तरह से साफ करें।
मूर्ति स्थापना- एक चौकी पर साफ कपड़ा बिछाएँ और भगवान दत्तात्रेय की मूर्ति स्थापित करें।
यदि उनकी मूर्ति उपलब्ध न हो तो भगवान विष्णु की प्रतिमा भी रखी जा सकती है, क्योंकि दत्तात्रेय जी को विष्णु स्वरूप माना गया है।
अभिषेक और तिलक- मूर्ति को गंगाजल या साफ जल से स्नान कराएँ। फिर सफेद चंदन और हल्दी से तिलक करें।
श्रृंगार और भोग- उनको फूल, माला, दीपक और मिठाई का भोग अर्पित करें। तुलसी पत्र, पंचामृत और चावल भी चढ़ाए जा सकते हैं।
व्रत और कथा- यदि आप व्रत रखते हैं, तो दत्तात्रेय व्रत कथा का पाठ ज़रूर करें। इससे पूजा पूर्ण मानी जाती है।
मंत्र जाप और पाठ- पूजा के समय दत्तात्रेय मंत्र का जाप लाभदायक माना जाता है, जैसे— "ॐ दिगंबरा दत्तात्रेयाय नमः" आप अवधूत गीता या जीवन मुक्ति गीता का पाठ भी कर सकते हैं।
आरती- अंत में दीपक जलाकर भगवान दत्तात्रेय की आरती करें।
क्षमा याचना और दान- पूजा में यदि कहीं कोई कमी रह जाए तो भगवान से क्षमा माँगें, और अंत में जरूरतमंदों को भोजन या वस्त्र का दान देना शुभ माना जाता है।
लोग भगवान दत्ता के जन्मदिन, दत्तात्रेय जयंती को खास प्रार्थना और पूजा के साथ मनाते हैं। इस खास दिन पर, लोग श्री दत्तात्रेय के प्रति सम्मान दिखाने के लिए व्रत रखते हैं, ध्यान करते हैं और अच्छे काम करते हैं।