Varuthini Ekadashi 2025: एकादशी के व्रत का हिंदू धर्म में बहुत महत्व माना जाता है। प्रत्येक मास में दो एकादशियां आती हैं और दोनों ही एकादशियां खास मानी जाती हैं। वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी भी बहुत खास है। इसका नाम वरुथिनी एकादशी है। इसे वरूथिनी ग्यारस भी कहते हैं। बहुत ही पुण्य और सौभाग्य प्रदान करने वाली इस एकादशी के व्रत से समस्त पाप व ताप नष्ट होते हैं। मान्यता है कि इस लोक के साथ-साथ व्रती का परलोक भी सुधर जाता है। मान्यता है कि इस व्रत के पुण्य का हिसाब-किताब रखने की क्षमता तो जगत के समस्त प्राणियों के पाप-पुण्य का लेखा-जोखा रखने वाले चित्रगुप्त तक में नहीं है। कहने का तात्पर्य है कि वरूथिनी एकादशी का व्रत अथाह पुण्य फल प्रदान करने वाला है।
वैशाख मास की कृष्ण एकादशी जो कि वरूथिनी एकादशी कहलाती है अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार इस वर्ष 24 अप्रैल को है।
वरुथिनी एकादशी – 24 अप्रैल 2025, गुरुवार
पारण का समय – सुबह 05:46 से सुबह 08:23 बजे तक (25 अप्रैल 2025 )
एकादशी तिथि प्रारम्भ - 23 अप्रैल, शाम 04:43 बजे
एकादशी तिथि समाप्त - 24 अप्रैल, दोपहर 02:32 बजे
हर एकादशी के महत्व को बताने वाली एक खास कथा हमारे पौराणिक ग्रंथों में है। वरुथिनी एकादशी की भी एक कथा है जो इस प्रकार है। बहुत समय पहले की बात है नर्मदा किनारे एक राज्य था जिस पर मांधाता नामक राजा राज किया करते थे। राज बहुत ही पुण्यात्मा थे, अपनी दानशीलता के लिये वे दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे। वे तपस्वी भी और भगवान विष्णु के उपासक थे। एक बार राजा जंगल में तपस्या के लिये चले गये और एक विशाल वृक्ष के नीचे अपना आसन लगाकर तपस्या आरंभ कर दी वे अभी तपस्या में ही लीन थे कि एक जंगली भालू ने उन पर हमला कर दिया वह उनके पैर को चबाने लगा। लेकिन राजा मान्धाता तपस्या में ही लीन रहे भालू उन्हें घसीट कर ले जाने लगा तो ऐसे में राजा को घबराहट होने लगी, लेकिन उन्होंने तपस्वी धर्म का पालन करते हुए क्रोध नहीं किया और भगवान विष्णु से ही इस संकट से उबारने की गुहार लगाई।
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भगवान अपने भक्त पर संकट कैसे देख सकते हैं। विष्णु भगवान प्रकट हुए और भालू को अपने सुदर्शन चक्र से मार गिराया। लेकिन तब तक भालू राजा के पैर को लगभग पूरा चबा चुका था। राजा बहुत दुखी थे दर्द में थे। भगवान विष्णु ने कहा वत्स विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी जो कि वरुथिनी एकादशी कहलाती है पर मेरे वराह रूप की पजा करना। व्रत के प्रताप से तुम पुन: संपूर्ण अंगो वाले हष्ट-पुष्ट हो जाओगे। भालू ने जो भी तुम्हारे साथ किया यह तुम्हारे पूर्वजन्म के पाप का फल है। इस एकादशी के व्रत से तुम्हें सभी पापों से भी मुक्ति मिल जायेगी। भगवन की आज्ञा मानकर मांधाता ने वैसा ही किया और व्रत का पारण करते ही उसे जैसे नवजीवन मिला हो। वह फिर से हष्ट पुष्ट हो गया। अब राजा और भी अधिक श्रद्धाभाव से भगवद्भक्ति में लीन रहने लगा।
वरुथिनी एकादशी या कहें वरूथिनी ग्यारस को भगवान मधुसूदन की पूजा करनी चाहिये। इस दिन भगवान श्री हरि यानि विष्णु के वराह अवतार की प्रतिमा की पूजा भी की जाती है। एकादशी का व्रत रखने के लिये दशमी के दिन से ही व्रती को नियमों का पालन करना चाहिये। दशमी के दिन केवल एक बार ही अन्न ग्रहण करना चाहिये वह भी सात्विक भोजन के रूप में। कांस, उड़द, मसूर, चना, कोदो, शाक, मधु, किसी दूसरे का अन्न, दो बार भोजन नहीं ग्रहण करना चाहिये। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन भी इस दिन करना चाहिये। पान खाने, दातून करने, परनिंदा, द्वेश, झूठ, क्रोध आदि का भी पूर्ण त्याग करना चाहिये। एकादशी के दिन प्रात:काल स्नानादि के पश्चात व्रत का संकल्प लेकर भगवान विष्णु के वराह अवतार की पूजा करनी चाहिये व साथ ही व्रत कथा भी सुननी या फिर पढ़नी चाहिये। रात्रि में भगवान के नाम का जागरण करना चाहिये और द्वादशी को विद्वान ब्राह्मण को भोजनादि करवा कर दान-दक्षिणा देकर व्रत का पारण करना चाहिये।
एकादशी के व्रत का हिंदू धर्म में बहुत महत्व माना जाता है। प्रत्येक मास में दो एकादशियां आती हैं और दोनों ही एकादशियां खास मानी जाती हैं। वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी भी बहुत खास है। इसका नाम वरुथिनी एकादशी है। इसे वरूथिनी ग्यारस भी कहते हैं। बहुत ही पुण्य और सौभाग्य प्रदान करने वाली इस एकादशी के व्रत से समस्त पाप व ताप नष्ट होते हैं। मान्यता है कि इस लोक के साथ-साथ व्रती का परलोक भी सुधर जाता है। मान्यता है कि इस व्रत के पुण्य का हिसाब-किताब रखने की क्षमता तो जगत के समस्त प्राणियों के पाप-पुण्य का लेखा-जोखा रखने वाले चित्रगुप्त तक में नहीं है। कहने का तात्पर्य है कि वरूथिनी एकादशी का व्रत अथाह पुण्य फल प्रदान करने वाला है।
हर एकादशी के महत्व को बताने वाली एक खास कथा हमारे पौराणिक ग्रंथों में है। वरुथिनी एकादशी की भी एक कथा है जो इस प्रकार है। बहुत समय पहले की बात है नर्मदा किनारे एक राज्य था जिस पर मांधाता नामक राजा राज किया करते थे। राज बहुत ही पुण्यात्मा थे, अपनी दानशीलता के लिये वे दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे। वे तपस्वी भी और भगवान विष्णु के उपासक थे। एक बार राजा जंगल में तपस्या के लिये चले गये और एक विशाल वृक्ष के नीचे अपना आसन लगाकर तपस्या आरंभ कर दी वे अभी तपस्या में ही लीन थे कि एक जंगली भालू ने उन पर हमला कर दिया वह उनके पैर को चबाने लगा। लेकिन राजा मान्धाता तपस्या में ही लीन रहे भालू उन्हें घसीट कर ले जाने लगा तो ऐसे में राजा को घबराहट होने लगी, लेकिन उन्होंने तपस्वी धर्म का पालन करते हुए क्रोध नहीं किया और भगवान विष्णु से ही इस संकट से उबारने की गुहार लगाई।
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भगवान अपने भक्त पर संकट कैसे देख सकते हैं। विष्णु भगवान प्रकट हुए और भालू को अपने सुदर्शन चक्र से मार गिराया। लेकिन तब तक भालू राजा के पैर को लगभग पूरा चबा चुका था। राजा बहुत दुखी थे दर्द में थे। भगवान विष्णु ने कहा वत्स विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी जो कि वरुथिनी एकादशी कहलाती है पर मेरे वराह रूप की पजा करना। व्रत के प्रताप से तुम पुन: संपूर्ण अंगो वाले हष्ट-पुष्ट हो जाओगे। भालू ने जो भी तुम्हारे साथ किया यह तुम्हारे पूर्वजन्म के पाप का फल है। इस एकादशी के व्रत से तुम्हें सभी पापों से भी मुक्ति मिल जायेगी। भगवन की आज्ञा मानकर मांधाता ने वैसा ही किया और व्रत का पारण करते ही उसे जैसे नवजीवन मिला हो। वह फिर से हष्ट पुष्ट हो गया। अब राजा और भी अधिक श्रद्धाभाव से भगवद्भक्ति में लीन रहने लगा।
वरुथिनी एकादशी या कहें वरूथिनी ग्यारस को भगवान मधुसूदन की पूजा करनी चाहिये। इस दिन भगवान श्री हरि यानि विष्णु के वराह अवतार की प्रतिमा की पूजा भी की जाती है। एकादशी का व्रत रखने के लिये दशमी के दिन से ही व्रती को नियमों का पालन करना चाहिये। दशमी के दिन केवल एक बार ही अन्न ग्रहण करना चाहिये वह भी सात्विक भोजन के रूप में। कांस, उड़द, मसूर, चना, कोदो, शाक, मधु, किसी दूसरे का अन्न, दो बार भोजन नहीं ग्रहण करना चाहिये। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन भी इस दिन करना चाहिये। पान खाने, दातून करने, परनिंदा, द्वेश, झूठ, क्रोध आदि का भी पूर्ण त्याग करना चाहिये। एकादशी के दिन प्रात:काल स्नानादि के पश्चात व्रत का संकल्प लेकर भगवान विष्णु के वराह अवतार की पूजा करनी चाहिये व साथ ही व्रत कथा भी सुननी या फिर पढ़नी चाहिये। रात्रि में भगवान के नाम का जागरण करना चाहिये और द्वादशी को विद्वान ब्राह्मण को भोजनादि करवा कर दान-दक्षिणा देकर व्रत का पारण करना चाहिये।
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